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रब की रज़ा में राज़ी रहना आ जाए तो हर पल विशेष है

क़ुदरत के करिश्मों पे स्वामित्व जताता राख का अवशेष है

ईश्वर की रज़ा में राज़ी रहना आ जाए तो हर पल विशेष है

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आज हर तरफ अशाँति और अफ़रा तफ़री का माहौल है, क्यूँकि हर कोई अस्थायी संपत्ति और संबंधों पर अपना स्वामित्व जता कर खुद को महान साबित करने पर तुला है।महानता तो रब की रज़ा में राज़ी रहने का सर्वोच्च सूत्र है, जिसे कोई पकड़ना ही नहीं चाहता। जिसे देखो अपनी अलग सीढ़ी लगाकर आसमान तक पहुँचना चाहता है।न तो किसी के पास क़ुदरत की बनाई हुई एकता की सीढ़ी पर चढ़ने के लिए अपनी बारी आने का इँतज़ार करने का धैर्य है, न ही अपने कदमों तले दबी हुई लोगों की संवेदनाओं की चीत्कार से उन्हें कोई लेना देना है।महत्वाकांक्षी होना बुरा नहीं है, लेकिन दूसरों को गिरा कर ऊपर चढ़ना बुरा है।

साल भर में अनेक उत्सव आते हैं, अपनी-अपनी जाति-धर्म और संस्कृति के अनुसार कर्मकांड करते हुए तन मन और धन का अपव्यय किया जाता है। अपव्यय शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया क्यूँकि अक्सर आपसी संबंधों में ही उपहारों के आदान-प्रदान किए जाते हैं और जरूरतमँद वर्ग वँचित रह जाता है, हर जश्न के वास्तविक अर्थ के भाव से।

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आते फागुन का रँग जनहित करें

अपने मन की शक्ति जागृत करें

हर रूह को निष्पक्ष सम्मानित करें

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ये तो सच है कि आज का युग कठिन प्रतियोगिता का युग है जिसमें सफल होने और आगे बढ़ने के लिए निरंतर कठिन संघर्ष करना पड़ता है।लेकिन ये भी सच है कि जब दिल व

दिमाग सत्कर्म के संकल्प के साथ एक ही दिशा में बढ़ते हैं तभी इतिहास रचित होता है।

किसी भी विशेष दिन की दस्तक के कारण कई सामाजिक और पारिवारिक समूहों में होड़ लग जाती है कि किस तरह इन विशेष दिनों पर अपनी आकांक्षाओं की बाँसुरी बजाई जाए जिससे इस बार इन दिनों की ख्याति को अपने नाम के साथ जोड़ा जा सके।इसके लिए कई तरह के आयोजन, प्रतियोगिताएँ, कपड़े, ज़ेवर, सौंदर्य विशेषज्ञों के अपॉइंटमेंट, कोरियोग्राफ़र की कक्षाएँ इत्यादि पर तन मन व धन के चढ़ावे चढ़ाए जाते रहे हैं।आधुनिक महिलाओं की छवि छोटे कपड़ों और छोटे रिश्तों में सिमट कर रह गई है।दरअसल जब तक बाँसुरी की तरह अपने अँदर को खाली न किया जाए तब तक सुरीली धुन की वो सरगम बज ही नहीं सकती जो किसी रूह को स्पर्श भी कर सके।

इसलिए प्रकृति द्वारा गढ़ी गई विनम्रता की उस मूरत को पढ़ने की कोशिश जरूर करनी चाहिए जो किसी सिलेबस में नहीं पढ़ाई जाती।

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नमन है सृजनशक्ति के हर रूप को

माता चाहे अनपढ़ ही हो फिर भी वो

अपने बच्चों को तो पाल ही लेती है

वात्सल्य ही तो विस्तार है जननी का

माँ की ममता सदियों से पूजनीय है

जो हर योनि में बच्चे सँभाल ही लेती है

घर बना लेती है हर एक मकान को

अपने अधिकारों को तिलांजलि देकर

कंधों पर ज़िम्मेदारी की मशाल ही लेती है

हर रिश्ते को सींचती है निस्वार्थ प्यार से

बेख़ौफ़ उतर कर जीवन के महासागर में

सीप से अनमोल मोती निकाल ही लेती है

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आधुनिकता के नाम पर अपनी संस्कृति को भुलाने की बजाए अगर नारी शक्ति अपने अँदर की ज्योति को जागृत करके जीवन में आने वाली हर बाधा की चुनौती को स्वीकृत  करना शुरू कर दे तो किसकी मजाल है जो नारी शक्ति को आगे बढ़ने से रोक सके।

ज़रूरत है तो केवल इस बात की कि कर्तव्य निष्ठा के साथ अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया जाए और परिणाम की चिंता किए बग़ैर निडर होकर अपने अँदर की प्रतिभाओं को निखारते हुए जीवन के हर पड़ाव को मुस्कुरा कर पार किया जाए।

सफलता और पैसे कभी किसी की ज़िंदगी में ख़ुशियों की गारंटी बनकर नहीं आते क्यूँकि ख़ुशी तो हमारे अपने अँदर ही छिपी है, बस ज़रूरत है उसे तलाशने की।

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जिसकी थाली में रोटी हो

वो भूख प्यास को क्या जानें

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जो लोग अपने नसीब में बैंक बैलेंस ऊपर से लिखवाकर आते हैं, जीवन को देखने का उनका दृष्टिकोण अलग ही होता है।

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अँबर के तारों से रिश्ते उनके

जो भोग विलास को सब कुछ मानें

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लेकिन आनँद तो आत्मा का श्रंगार है जो भोग से नहीं बल्कि योग से मिलता है।

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देह के सौदागर मदमस्त बेसुध

फक़ीरी के रास को क्या जानें

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एक महिला कितने भी बच्चों को जन्म दे ले लेकिन जब तक वो अपने साथ-साथ दूसरों की देखभाल और निस्वार्थ मदद करने के लिए प्रेरित नहीं होती तब तक वो माँ नहीं कहला सकती।

हर महिला के जीवन के लक्ष्य अलग हो सकते हैं लेकिन चाहत सबकी एक ही होती है – एक सार्थक ज़िंदगी और खुशी।

बिना किसी कारण के की जाने वाली कोई यात्रा महायात्रा नहीं कहलाती। सफर तो वही आनंददायक होता है जिसमें हर क़दम पर निस्वार्थ प्रेम से सारी सृष्टि की सेवा का जुनून हो।

आनँद पाने के लिए न पैसे की ज़रूरत है न पावर की। आनँद तो हर पल बहता हुआ सकारात्मक सोच का वो सागर है, जिसकी गहराई में डूबकर ही पार लगा जा सकता है।जीवन धारा के सँग बहना आ जाए तो उम्र का गणित भी किसी को आगे बढ़ने से नहीं रोक सकता।उम्र का बहाना बनाकर अपनी ज़िम्मेदारियों से रिटायर होने वाले लोग फूल खिलाना छोड़ देते हैं। जबकि माली भले ही उम्रदराज़ हो तो भी नौसिखियों का समूह बनाकर उनका मार्गदर्शन तो कर ही सकता है।

मातृत्व तो एक भाव है, जो किसी बाँझ को भी माँ बना सकता है, और माँ कभी रिटायर नहीं होती।

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माना कि बेशक़ीमती हुआ करते थे जो कभी

आहिस्ता-आहिस्ता वो सहारे सरक जाते हैं

अपनापन जताते हुए रिश्ते भी दरक जाते हैं

जब भी कभी किसी जीवन में साँझ होती है

वात्सल्य तो वो गहराई है सागर की अनंत

जिसकी सीढ़ी आसमान तक चढ़ी होती है

ममता की उर्वरा शक्ति सबसे बड़ी होती है

बँजर तो बीज होते,मिट्टी कब बाँझ होती है

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फूल खिलाना तो सबसे आसान कला है, क्यूँकि रोते हुए इँसान को मुस्कान का एक बीज देने वाला ताबीज़ ही तो रब की रूहानियत का सर्वोत्तम इल्म है।

खुद को मिली हर एक सुविधा के प्रति आभार ज्ञापित करते हुए, उम्र की गिनती को नजरअँदाज़ करें और हर रूह में फूल खिलाने के सँकल्प के साथ हर दिन का आग़ाज़ करें तो सारी सृष्टि में हरियाली छा जाए।

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खिल जाएँगे हर हृदय में फूल

तो सुगँधित सारा समाज होगा

कमल रूह का खिला कर देखें

अद्भुत जीवन का अँदाज़ होगा

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