दिनांक—10-7-2024 , टाइम्स आफ इंडिया,-द स्पीकिंग ट्री में एक आर्टिकल पढ़ा -It is easy to invite joy in your life.यह विशुद्ध अनुभूत उस खुशी की बातें करता हुआ सा प्रतीत हुआ जो मानव मन की वह अवस्था है जिसे मुदितावस्था कहते हैं और जिसे अक्सर हृदय की संकीर्ण भावनाओं के तहत ,सांसारिक हानि लाभ, ईर्ष्या द्वेष आदि के प्रभाव मे हम सदा पा नहीं सकते,परिणामस्वरूप हम लौकिक स्तर पर व्यथित रहते हैं। इस आर्टिकल का कथ्यदूसरों की उपलब्धियों पर भी खुश होना सीखने ,नकारात्मक दृष्टि को बदलने से जुड़ा है जो स्वयमेव व्यक्ति को मुदितावस्था मे ले जाने में सक्षम होगा। यह एकलौकिक उपलब्धि होगी पर क्या इसी अवस्था को प्राप्त करना मानव जीवन का उद्येश्य है?अकस्मात् मेरे मन में उठे प्रश्न को मैंने अपने विचारों में ढूँढने की कोशिश की।क्या मनुष्य आनन्द की समस्थिति नहीं चाहता जो उसे लौकिक खुशी ,नाखुशीसे दूर ले जाकर निरासक्त आनन्द की स्थिति को प्राप्त कराए?वस्तुतः मनुष्य कीसन्तुष्ट स्थिति का वही पर्याय हैजो उसे अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्, एवंलोकः समस्त सुखिनो भवन्तु की भावभूमि मे ले जाता है।
आनन्द की यह स्थिति निरासक्ति से उत्पन्न होती है।निरासक्ति यानि जीवन में आसक्ति का निषेध।प्रश्न है कि आसक्ति का तात्पर्य क्या है-क्या वह मोह नहींहै ?सारे ईर्ष्या द्वेषादि के मूल में अपनी चाहना ही तो है।मोह- किस किस के प्रति—
–किसी व्यक्ति के प्रति—जिसे हम प्रेम की कोटि में रखेंगे।
–किसीवस्तु के प्रति -जिसपर अधिकार प्राप्त करने की इच्छा हो।
–जगत के हर उस दृश्य श्रव्य ,भोग्य स्थितियों से जो संसार में उत्पन्न होने के परिणामस्वरूप है। उनसे हमारा जाने अनजाने सम्बन्धजुड़ता है और मोह की स्थिति उत्पन्न होती ही है।
-सांसारिक सम्बन्धों से आसक्ति वस्तुतः जीवन का व्यावहारिक रूप है।
आसक्ति का अर्थ है राग—और उसका विपरीत भाव है वैराग्य।
यह अनासक्ति स्थायी आनन्द अथवा सुखभाव में परिवर्तित हो सकती है।पर इसे प्राप्त करने के लिये अपने और पराये का भेद तो मिटाना ही होगा।राग द्वेष से मुक्त होना होगा।राग और द्वेष जो माया के परिणामस्वरूप हैं,और व्यक्ति और वस्तुओं से जुड़े हैं।
किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहींकि जीवन की तत्सम्बन्धित आवश्यकताएँ पूर्ण ही नहीं की जाएँ। सारी प्रकृति अपने दृश्य श्रव्यके बिखरे सौन्दर्य के साथ मानव जीवन के लिए निरर्थक और अनुपयोगी तो कदापि नहीं हो सकती?तो वह उपभोग्य अवश्य है।
विवेक कहता है कि वे उपभोग्य अवश्य हैं किन्तु उससे आसक्ति अथवा मोह नही हो।
किन्तु अगर आसक्ति नहीं हो तो इस प्राकृतिक वैभव या सौन्दर्य कीवृद्धि हेतु कोई प्रयत्न क्यों करे?संभव है लोकमंगल के लिए।यह सत्य है किप्रकृति के सौन्दर्य के भीतर भी लोकमंगल का एक स्वरूप है जिसे पहचानना आवश्यक है।
यह आसक्ति उस एक आन्तरिक इच्छा के फलस्वरूप हैजो उन सबों को सदैव अपने आसपास देखने की है और जिसे नहीं देखने से दुख होता है, उसे खोने का भय होता है।यह दुख और यह भय भी आनन्द -स्थिति की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करता है।यानि की भयहीन जीवन आनन्द का आधार है।
कुछ और प्रश्न मन में उठते हैं।
-क्या आसक्ति और प्रेम में अन्तर है?
-प्रेम क्यों और किसके प्रति?
-क्या प्रेम सुख का कारण है?
-क्या सुख आनन्द का कारण है?
-आनन्द सुख से भिन्न कैसे है?
उपरोक्त इन सारे प्रश्नों के उत्तर मैं अपने विचारों में ढूँढने का प्रयत्न करती हूँ।
सर्वप्रथम आसक्ति को देखें—यह वस्तुतः प्राप्ति की भावना का संकेतक है।इसी हेतु कर्म में आसक्ति होती है।किन्तु क्रमशःसुख और आनन्द की प्राप्ति के लिए निरासक्त होना अत्यन्त आवश्यक है।श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग की प्रस्थापना की गयी है।यह कर्म योग का स्वरूप तभी धारण करता हैजब उससे आसक्ति नहीं जुड़ी हो। यह तभी क्रमशः आनन्दोन्मुख भी होता है।
तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोतिपुरुषः।। गीता अध्याय –3 श्लोक 19।
अनासक्त होने का अर्थ सामान्य कर्मों का त्याग नहींवरन कर्मों का लोकहित में अर्पण है।
अनासक्ति अकर्मण्यता कदापि नहीं हो सकती राजा जनक को उदाहरणस्वरूप हम ले सकते हैं।
भक्ति अनासक्ति का पूर्व रूप हो सकता है । वह भक्ति जो सांसारिक वस्तुओं के प्रति मोह तोड़ने में सक्षम हो वहअनासक्ति की प्रथम सीढ़ी हो सकती है।
अनासक्ति मोह भावना का त्याग तो अवश्य करती है,किन्तु विश्वप्रेम की भावना की संवाहिका बनती है।तब वह निजत्व से दूर जाकर लोकमंगल से जुड़ती है। और तब ,जब वह जीवमात्र में ईश्वरीयसत्ता की झाँकी पाती है तो निजत्व स्वयं ही दूर हो जाता है और परसेवा की भावना अपने आप ही उदित हो जाती है।यह किसी भी तरह आसक्ति का स्वरूप नहीं बल्कि सत्यप्रेम की ऐसी भावना हैजो अपने प्रसार से धीरे धीरे निज और पर का अन्तर ही खो देती है।
पर आसक्ति और प्रेम में गहरा अन्तर है।आसक्ति प्राप्ति की इच्छा से जुड़ी हैजबकि प्रेम सर्वस्व दे देने की इच्छा से जुड़ा है।यह अनासक्ति से अपने आप उत्पन्न होती हैऔर समस्त चराचर के प्रति समर्पित हो जाती है।यह हृदय की विशालता की ओर उन्मुख है।समस्त विश्व के प्रति प्रेम में तात्कालिक सुख के लिए कोई स्थान नहीं।जहाँ सुख की कल्पना होती है वहींदुख की प्रच्छन्न उपस्थिति का भय भी होता है।दुख के भय से मुक्त सुख आनन्द की ओर ले जाता है।वस्तुतः आनन्द एक समस्थिति हैजहाँ सुख और दुख का तिरोभाव है।यह एक ऐसी स्थिति हैजो जितना अन्दर है उतना बाहर भी।यह एक समदृष्टि है।इस दृष्टि में हर कुछ सुन्दर है,कुछ भी असुन्दर नहीं।यह एक स्थायी स्थिति हैजिसमें हृदय का प्रसार सारे विश्व को अपने में समाहित कर लेता है।
स्वयं में यही आनन्द मुक्ति स्वरूप है।धर्म अर्थ काम और मोक्ष में यह यह मोक्षका स्वरूप है।यह परम सत्ता से एकात्म भाव को प्राप्त करता है।इस परम आनन्द को प्राप्त कर चैतन्य महाप्रभु को किसी अन्य मोक्ष की कामना नहीं हुई।प्रकृति में निहित इसी आनन्द मे परब्रह्म का निवास है।
तात्पर्य यह कि आरम्भ मे वर्णित मुदितावस्था का सर्वोन्नत ,,आध्यात्मिक स्वरूप आनन्द की स्थिति है। यही मनुष्यों को काम्य भी होना चाहिए।निरासक्ति रूपी प्रथम सोपान पर चढ कर्म योग की प्रक्रिया को साध्य बना मन की प्रेम भावना का विस्तार कर आनन्द की स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है जो सुख की चरम उदात्त स्थिति है।
आशा सहाय