राजनीतिक सफरनामा : बिहार चुनावःः रेबड़ियों के भरोसे
— कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
बिहार चुनाव अपने रंग मे रंगा चुके है । एक तरफ दीपावली और छठ जैसे महापर्व चल रहे थे वहीं दूसरी ओर नेता सारा कामकाज छोड़कर चुनाव में लगे थे । पांच साल के लिए मेहनत होती है यह ‘‘कर लो भैया आपको, माई को न बाप को’’ जो करना है सो कर लो बाद में पछताओगे कि ऐसा कर लेते तो ऐसा हो जाता और ऐसा न करते तो अच्छा रहता । सारे दांव आजमा लो । वैसे तो बिहार में पिछले छैः महिने से मेहनत की जा रही है, गणित बनाया जा रहा है कि ऐसा करेगें तो ऐसा हो जाएगा । प्रशांत किशोर तो आंकड़ों के जादूगर हैं, ऐसा माना जाता है कि उन्होने ऐसे ही आंकड़ों के दम पर ममता बनर्जी, अरविन्द केजरीवाल से लेकर नीतिश कुमार को भी चुनाव जितवाए हैं पर अबकी बार वे खुद फंस गए । । किसी और के लिए काम करना वो भी पैसे लेकर वो अलग बात है पर खुद के लिए काम करना बिल्कुल अलग । वो पार्टिंयां जमी जमाई पार्टिंयां थीं उनके पास कार्यकर्ताओं की फौज थी आम जनता के बीच उनकी अपनी पहचान थी और करोड़ों अरबों का फंड भी था पर अब प्रशांत किशोर को खुद ही फंड का इंतजाम करना है और खुद ही कार्यकर्ताओं की फौज जमा करना है फिर अपनी पार्टी को जनता से परिचित भी कराना है । काम बहुत कठिन था….वो कहते हैं न कि ‘‘दूर के ढोल सुहावने लगते हैं’’ । दूर के ढोलों के चक्कर में प्रशांत किशोर फंस गए, हांलाकि उन्होने मेहनत बहुत की पिछले तीन-चार साल से उन्होने बिहार की जमीन की सारी धूल माप ली, गांव-गांव गए, लोगों को इकट्ठा किया, अपनी फौज बनाई, उनकी यह मेहनत रंग तो ला रही है पर वे सत्ता की कुर्सी पर काबिज हो पाएं ऐसा राजनीतिक विश्लेषक बता नहीं रहे हैं । पर प्रशांत किशोर मेहनत कर रहे हैं और चुनावी मुकाबले में भी हैं, कम सीटें भी आ गई तो उनकी इज्जत भी बच जाएगी और मेहनत भी सफल हो जायेगी । उनके पास अपना गणित है, इतनी वोटें इन्हें मिलती हैं और इतनी वोटें इन्हें अगर इतनी वोटें हमें मिल जायें तो कुर्सी हमारी । वैसे चुनाव मैनेजमेन्ट का खेल तो है यह सही है पर केवल मैनेजमेन्ट से ही चुनाव नहीं जीते जा सकते ।आज का मतदाता बीसवीं सदी वाला मतदाता नहीं है जो कहीं भी और किसी के भी कहने से वोट दे आए । ज्यादतार मतदाता सोशल मीडिया से जुड़ा है और पल-पल की जानकारी अपने पास रखता है । मतदाता का रूझान भी अब सार्वभौमिक नहीं रहा है मतलब किसके जीत जाने से उनके क्षेत्र को कितना फायदा होगा वह अब ऐसा नहीं सोचता शायद वह केवल यह गणित लगाता है कि उसे क्या फायदा होने वाला है । व्यक्तिगत फायदा ने ही चुनावी रेबड़ियों की शुरूआत की है । अब चुनाव पूर्व के विकास के आधार पर या भविष्य की योजनाओं कें आधार पर नहीं होते वे होते हैं कि अब किसको कितना मिलने वाला है । महिलाओं को हर महिने कितने पैसे मिलेगें और आम मतदाता को कितने । महिलाओं की मासिक पेंशन योजना लगभग हर चुनाव में जिताउ योजना के नाम से जानी जाने लगी है । जो ज्यादा पैसा देगा महिला वोट उसको मिल जायेगें इसम मानसिकता ने राजनीतिक दलों को अधिक से अधिक पैसा देने की होड़ में लगा दिया है । प्रदेश का बजट कितना भी हो पर महिलाओं को हर महिना इतने पैसे तो दिए ही जायेगें । रेबड़ी ने विकास को प्रभावित किया है यह सच सभी जानते हैं राजनीतिक दल भी और मतदाता भी पर इस सच को भी वे जानते हैं कि यदि कुर्सी पर बैठना है तो करेले के रस को ग्रहण करना ही होगा । बिहार का बजट बहुत कम है इसलिए ही तो वह पिछड़ा राज्य की श्रेणी में आता है पर चुनावी घोषणायें ऐसी हैं कि पांच साल के बजट में एक साल का खर्चा भी निकल आए तो आश्चर्य ही होगा । पर इसके बाद भी घोषणाएं हो रहीं हैं और मतदाताओं को अपनी ओर खींचने के प्रयास हो रहे हैं । हर एक सत्तारूढ़ नेता जानता है कि कर्ज लो और काम करो । देश का हर राज्य कर्ज में डूबा है, यह कर्ज बढ़ता ही जा रहा है पर रेबड़ियां भी बांटी ही जा रही हैं । कर्ज लेने वाला जानता है कि वह उसका व्यक्तिगत कर्ज तो है नहीं जिसकी वह चिन्ता करे और मतदाता भी जानता है कि यह उसका व्यक्तिगत कर्ज तो है नहीं कि बैंक वाले उसके घर आकर नोटिस चस्पा कर दें सो लो और घी पीओ। तेजस्वी यादव ने तो बिहार के हर घर में एक सरकारी नौकरी की घोषणा कर दी है और पूर्व पंचायत प्रतिनिधियों को पेंशन देने तक की बात कर दी है । त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था में लाखों प्रतिनिधि होते हैं और पूर्व प्रतिनिधियों की संख्या करोड़ों में हो सकती है तो कितना बजट लगेगा इसके बारे में सोचा ही नहीं गया है, वही लखपति दीदी को भी पैसे देने हैं और भी बहुत कुछ है इता है कि कितना बजट लगेगा इसका गणा-भाग करते-करते पसीना आ जाए । लगता है कि इस बार बिहार के मतदाताओं की लाटरी निकलने वाली है । वे तो इस बारे में सोच रहे होगें कि कौन कितनी और बोली लगाता है इसे देख लें । अब बहस भी इसको लेकर शुरू हो चुकी है । बहस तो बहुत पहले से चल रही है, टैक्स देने वाला मतदाता अपने टैक्स की बंदरबांट को खामोशी से देखता रहता है । टैक्स तो सार्वजनिक विकास के लिए दिया जाता है पर यह टैक्स अब केवल कुछ लोगों के विकास की भेंट चढ़ रहा है । बहस हो रही है पर इस बहस का कोई नतीजा नहीं निकलेगा । माननीय उच्च न्यायालय ने भी इस पर एक बार टिप्पणी की थी और रेबड़ी कल्चर को खतरनाक बताया था पर कुछ नहीं हुआ, आगे भी कुछ नहीं होगा । ज्यादातर टैक्स देने वाला मध्यमवर्गीय होता है जिसके हिस्से में कोई रेवड़ी कभी नहीं आती, वह अपने पड़ोसी को फिरी का राशन लाते देखता है, वह अपने मोहल्ले की महिलाओं को हर महिने मिलने वाली पेंशन को बैंक से निकालते देखता है और उदास हो जाता है । उसे तो केवल टैक्स देना है, वह उसका हिसाब भी नहीं पूछ सकता वरना देशद्रोही घोषित कर दिया जाएगा । राज्य कोई भी हो, राजनीतिक दल कोई भी हो रेवड़ियां एक सी होती हैं और लेने वाले भी एक ही होते हैं । बिहार चुनाव में अब तक की सबसे अधिक रेवड़ियां बांटे जाने का रिकार्ड बनने जा रहा है । महागठबंधन ऐसी ऐसी घोषणायें कर रहा है कि सनने वाला भी दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर हो रहा है , यदि वो वाकई सत्ता में आ गया तो इसे कैसे पूरा किया जाएगा । कम से कम अपना बजट तो देखा ही जाना चाहिए पर अंधी दौड़ में सभी को केवल वर्तमान ही दिखाई दे रहा है, उसे भविष्य की कोई चिन्ता नहीं है ‘‘कर्ज ले लेगें’’ तो बाहर से कर्ज लेने की सीमा भी तय नहीं की जानी चाहिए, आखिर इस कर्ज को भी चुकाएगा तो आम व्यक्ति ही जिसको कोई रेबड़ी नहीं मिली है । चिन्तन तो सब कर लेते हैं, पर कोई कुछ कर नहीं पाता, यह अंध्सी दौड़ कहां जाकर रूकेगी कोई नहीं जानता, पर राज्य दर राज्य यह परंपरा गतिशील है और इसकी गति तेजी से बढ़ रही है । बिहार चुनाव दो बड़े गठबंधन होने के बावजूद भी त्रिकोणीय मुकाबले में फंसा हुआ है । जनसुराज पार्टी ने किसी के साथ कोई गठबंधन नहीं किया है, उसे इतना अंदाजा तो है कि कल जब सरकार त्रिशकु बनेगी तब उनकी कीमत बढ़ेगी । वे अपनी कीमत बढ़ने का इंतजार कर रहे हैं । चुनाव में कौन जीतेगा कहा नहीं जा सकता । प्रत्याशी बनाने से ज्यादा कठिन काम गठबंधन में किस दल को कितनी सीटें मिले ंयह रहा । एनडीए से लेकर महागठबंधन तक सीटों के बंटवारे में पसीना बहाते दिखे । एनडीए गठबंधन ने तो अपने दलों को तरेरी चढ़ाकर या भविष्य के सुनहरे सपने दिखाकर अंदर ही अंदर शांत कर लिया पर महागठबंधन ऐसा नहीं कर पाया तो उसे सीटों का बंटवारा करने में परेशान होना पड़ा हो सकता है इसी चक्क्र में वीआइपी पार्टी के प्रमुख मुकेश सहनी को उप मुख्यमंत्री पद का लोभ दिया गया हो, हांलाकि मुकेश सहनी तो बहुत दिनों से चिल्ला-’चिल्ला कर कह रहे थे कि अब ‘‘निषाद का बेटा उप मुख्यमंत्री बनेगा’’, तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का चेहरा तो स्वाभाविक ही माना जा रहा था, कांग्रेस जाने क्यों इसे घोषित करने में देर कर रही थी । दरअसल कांग्रेस को यह सपने आने लगे हैं कि राहुल गांधी वोट अधिकार यात्रा से पूरे बिहार में उनका जनसमर्थन बढ़ा है इस चक्क्र में वे अधिक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ना चाह रही थी । कभी बिहार में कांग्रेस का एकछत्र राज्य था, पर फिर उसे दो दर्जन सीटें जीतने में पसीना आने लगा । पिछले चुनाव में भी वह कम सीटों पर ही सिमट गई थी । इधर आरजेडी का सोचना है कि आप ज्यादा सीटों पर लड़ो और हार जाओ इससे बेहतर यह है कि आप उतनी ही सीटों पर चुनाव लड़ों जहां आपके जीतने की थोड़ी बहुत भी गुंजाइश हो । आरजेडी पिछली बार कुछ ही सीटों से सत्ता पर काबिज होने से रह गई थी और वे कुछ ही सीटें कांग्रेस ने गंवा दी थी, यदि पिछली बार कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन करती यी कम सीटों पर चुनाव लड़ कर बाकी सीटें आरजेडी को दे देती तो आरजेडी सत्ता पर काबिज हो जाती । मुकेश सहनी विगत चुनाव में एनडीए के साथ गठबंधन में थे । एनडीए के साथ गठबंधन में उन्होने जो खोया उसका रोना वो अब रोते दिखाई देते हें यही कारण है कि उन्हें अपनी मांग से कम सीटें मिलीं फिर भी वे महागठबंधन का हिस्सा बने रहे यह अलग बात है कि उन्हें पुरूस्कार के रूप में उपमुख्यमंत्री पद का आश्वासन मिल गया । एनडीए में सब कुछ ठीक न होते हुए भी सब कुछ ठीक है । मांझी से लेकर उपेन्द्र कुशवाहा तक आंखें तरेरते रहे पर जैसे ही अमित शाह ने अपनी आंखें तरेरी सभी की आंखों से पानी निकल आया अब वे कम सीटें पाकर भी एनडीए जिन्दाबाद कहते दिख रहे हैं । खुद नीतिश कुमार भी नाराज रहे ऐसा बाहर निकलकर आया पर जैसे ही अमित शाह उनसे मिले वे ओठों पर मुस्कान लिए चुनाव प्रचार में घूमते दिखाई देने लगे । महागंठबंधन के पास ऐसा आंख तरेरू कोई नहीं है सो उन्हें भारी मसक्कत करनी पड़ी । बिहार चुनाव में सीटों को ब्ंटवारा जितना रोमांचकारी रहा उतना तो बालीबुड की फिल्म रोमांच पैदा नहीं कर पाती, हर दिन मुंह फुलाए नेता की तस्वीर दिखाई देती जो धमकी भरे अंदाज में अपने काल्पनिक भविष्य की तस्वीर प्रस्तुत कर देता । मीडिया को लगता कि अब कुछ बड़ा होने वाला है पर कुछ बड़ा नहीं हुआ, हुआ वही तो एनडीए में भाजपा ने सोचा था और महागठबंधन में आरजेडी ने सोचा था । बाकी दलों को तो अपनी लाज बचानी थी सो वे भी झूठी मुसकान लिए दिखाई देने लगे । बिहार चुनाव अब पूरी तरह शबाव पर आ चुका है चौदह नवम्बर को मतगणना हो ही जाएगी तो साफ हो जाएगा कि सत्ता की कुर्सी किसके हिस्से में आई है पर जिसके हिस्से में नहीं आएगी वह अपने आरापो को धार देने लगेगा । आरोप भी तैयार होगें और क्या बोलना है उसकी रिहर्सल भी तैयार होगी ।
