पिछले दिनों भारत की जी. डी. पी. दर 5.8 से घटकर 5 पर आ गयी फिर क्या था कई अर्थशास्त्रीयों के माथे पर शिकन सी आ गयी जबकि विपक्ष इसे मुद्दा बनाकर मोदी सरकार को घेरने मे जुट गया पर असलियत तो समझना होगा । भारत फिलहाल वैसी जटिल स्थिति में नहीं फँसा है जैसा 90 के दशक मे ब्रिटेन फँसा था परंतु पिछले 60 साल के कुशासन ने इतनी स्पेस छोड़ रखी है कि हम हज़ारों कि.मी नयी सड़क आज भी बिना पुरानी के तोड़ के बना सकते हैं। बस समस्या यह है कि जो कंपनियां इंफ्रास्ट्रक्टर में तेज़ी ला सकती हैं वो भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन के दलदल में बुरी तरह फँसी हुई हैं। इसका सबसे क्लासिक उदाहरण है आईं एल एंड एफ सी का संकट। इस ट्रेड ने भारत मे वही स्थिति पैदा कर दी है जो अमेरिका की सब-प्राइम क्राइसिस में लेहमैन ब्रदर्स ने पैदा कर दी थी जिससे वो आज तक नहीं उबर पाया। आज सारे अर्थशास्त्री ज्ञान दे रहे हैं कि पब्लिक स्पेंडिंग बढ़ाओ। लेकिन जो नीचे फाइनेंसियल स्ट्रक्चर है जो फाइनेंस करेगा वो सबसे बड़ी मुसीबत में है। आई एल एंड एफ सी पर जो 91000 करोड़ का कर्ज है वो बेतहाशा लागत बढ़ जाने के कारण है। लागत बेतहाशा बढ़ने का कारण यू पी ए 2 सरकार है।
अभी सरकार ने रिज़र्व बैंक से 1.76 करोड़ की जो मदद ली है उसे राहुल गांधी ने डाका बता दिया। रिज़र्व बैंक के पास जो पैसा होता है वो उसे चार खाते में बांट कर रखती है। आज की तारीख में कुल पैसा 9.62 लाख करोड़ चार खातों में है – करेंसी एंड गोल्ड रिज़र्व (6.95 लाख करोड़), एसेट डेवलपमेंट फण्ड (22.811 हज़ार करोड़), इन्वेस्टमेंट फण्ड (13.285 हज़ार करोड़) और कॉन्टिनजेंसी अर्थात आकस्मिक फण्ड (2.32 लाख करोड़)। सरकार ने इस आकस्मिक निधि से 1.76 लाख करोड़ रु लिए हैं। जिसे राहुल गांधी डाका कह रहे हैं।
1991 में कांग्रेस समर्थित चंद्रशेखर जी की सरकार के समय मात्र एक हफ्ते का तेल ख़रीदने लायक करेंसी रिज़र्व शेष था तब सरकार ने गोल्ड रिज़र्व से 67 टन सोना आई.एम.एफ के पास गिरवी रख था। इस क्राइसिस को हम बैलेंस ऑफ पेमेंट क्राइसिस कहते हैं। इस क्राइसिस की जड़ भी 1985 से राजीव गांधी जी के कार्यकाल से प्रारंभ होती है। राजीव गांधी जी ने चंद्रशेखर जी की सरकार से समर्थन सोना गिरवी रखने पर वापस नहीं लिया था बल्कि जासूसी करवाने के आरोप में लिया था। जिस कांग्रेस को 1991 में गोल्ड रिज़र्व की चिंता नहीं थी वो आकस्मिक निधि की चिंता करती बड़ी ‘क्यूट’ लगती है।
इस क्राइसिस से निकलने का ब्रह्मवाक्य वही है जो मेनोर्ड कीन्स ने ब्रिटेन को सुझाया था अर्थात पब्लिक स्पेंडिंग बढ़ाओ। अगर यह पैसा बी एस एन एल , एयर इंडिया और एल एंड बी के कर्मचारियों की तनख्वा पर खर्च हुआ तो 6 माह या साल भर बाद यही स्थिति दोबारा खड़ी होगी।इस देश मे सिर्फ दो समस्याएं हैं एक कृषि और कृषि से जीविका और जीवन चलाने वाला किसान दूसरी जनसंख्या मोदी जी सहित देश के तमाम शाशक इस समस्या की ओर ठीक से ध्यान नही दे पाए ।जब हम पढ़ते थे तो शायद ही कोई वर्ष रहा हो जब हम परी्क्षा में यह वाक्य न लिखते हों कि भारत कृषि प्रधान देश है ,और इस देश की 80% जनसंख्या कृषि पर निर्भर है अब शायद यह प्रतिशत घट कर 60 से 70 % हो गया होगा।फिर भी यह आधी आबादी से ज्यादा ही है।प्रतिशत तो घटा जरूर है पर अब संख्या में देखें तो तो जितनी आबादी 80 के दसक में देश की होगी आज उतनी आबादी किसानों की है। यानी 70 से 80 करोड़ के आस पास।अब अगर देश की यह जनसंख्या खुशहाल नही है तो देश खुशहाल होगा ,यह सोचा भी नही जा सकता।देश मे पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से नहरों ,नलकूपों का जाल बिछाया गया केमिकल खेती की गई जिससे उत्पादन तो बढ़ा पर किसान की हालत में उत्तरोत्तर सुधार नही हुआ।खाद ,बीज ,कृषि उपकरण मंहगे होते गए अतः किसानों को ऋण के माद्ध्यम से इनको खरीदने के लिए पूंजी उपलब्ध कराई गई जो अब किसानों की समस्या का मूल कारण हो गई है।ऋण प्रबंधन कोई आसान कार्य नही है ,80%सीमांत और लघु उद्दोगों का फेल होना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है,सोचिए किसान की बेटी का गौना ,शादी, मुंडन ,बच्चों के कपड़े, फीस, बरही, तेरही ,बीमारी अज़ारी, कितने अवसर होंगे जब किसान ऋण के पैसे को ना चाहते हुए भी अन्यत्र उपयोग कर लेता होगा।फिर कर्ज़ तो तब चुक सकता है जब लाभ हो ।कृषि विपड़न में कोई सुधार नही हुआ है, लागत ही निकल आये बिचौलियों से बचकर यही बहुत है।वो फिर कर्ज़ लेता है इस आशा से की अगली फसल पर सब ठीक हो जाएगा पर कुछ ठीक नही होता है और यह कर्ज़ कुचक्र अंततः जानलेवा सिद्ध होता है।
——- पंकज कुमार मिश्रा जौनपुरी 8808113709