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राजनीतिक सफरनामा : चुनावी समीकरणों में उलझा मतदाता

                                                                                          कुशलेन्द्र श्रीवास्तव

सारे विष्व में उथल-पुथल मची हुई है । ‘‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’’ के सिद्धांत पर अब दुनिया चल रही है । इसमंे जिसके हाथ मं छड़ी तक नहीं है वह पिस रहा है । कोरोना की मार भूल कर अपनी लाठी को कच्चे तेल से चमका का कर वे उठ खड़े हुए हैं । उनको अपने आपको बलषाली सिद्ध करना है । जिसके हाथों मं लाठी होती है वह यूं भी अपने आपको ठेकेदार समझने ही लगता है । रूस को अमेरिका के हाथों से यह खिताब वापिस लेना है तो उसने भी अपने हाथों में लाठी ले ली ‘‘आ जाओ मैं कोई डरता थोड़ी न हूॅ’’ बली का बकरा तो यूक्रेन बन गया । अमेरिका केवल बातें करता रहा और रूस ने सारा खेल कर दिया । अमेरिका क रो राष्टपति ने जब से अपना कार्यभार सम्हाला है तब से ही उन पर मानो राहू की महादषी चढ़ गई है । वे अफगानिस्तान में अपने निर्णय पर घिरे और अब यूक्रेन के मामले मं घिर गए । केवल बातों से कुछ नहीं होता धरातल पर काम भी करना पड़ता है । रूस ने अपनी लाठी को चमका लिया है अब वह महाषक्तिषाली देष कहलाने की स्थिति में आ चुका है । एक लाठी वाले हाथ अपने देष में भी भैंस को थामें चल रहे हैं । उनके हाथ में लाठी है और चेहरे पर मुसकान । उनकी लाठी जिस ओर चल जाती है वह पूरा क्षेत्र साफ हो जाता है । नबाव मलिक पर लाठी चली तो वे जेल की सलाखों मंें खड़े दिखाई देने लगे । उन्हें बहुत भरोसा था अपने आप पर ‘‘कोई माई का लाल आरोप नहीं लगा सकता कि मेरे आतंकवादियों से संबंध हैं’’ ऐसा कह कर वे अपनी बांहे चढ़ा लिया करते थे । पर एक दिन लाठी वाले हाथ चले और वे इसी आरोप में जेल की सलाखों के पीछे पहुंच गए । आरोप सही हैं अथवा गलत यह बहस ही बेमानी है परिणाम तो यह है कि उसी आरोप में जेल के अंदर हैं । लाठी जब चलती है तो लाठी चलाने वाला अमूमन अपनी आंखें बंद कर लेता है । वह बंद आंखों से लाठी चलाता है, लाठी भी कहीं भी चक्कर लगाती रहती है और जो उसकी चपेट में आ जाता है वह आह भरकर सुबकने लगता है ।  लाठी अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाने में ऐसे ही मददगार साबित होती है । एक लाठी चुनावों वाले राज्यों में भी चल रही है । चार राज्यों के चुनाव तो निपट ही चुके हैं पर उत्तर प्रदेष के चुनाव अभी चल ही रहे हैं । सात चरणों का चुनाव है । भाषण देने वाले नेता थक चुके हैं, आरोप लगाने वाली पार्टियां बोल-बोलकर हाॅफने लगीं हैं । पर चुनाव तो चल ही रहे हैं । जब तक आखिरी मतदान नहीं हो जाता तब तक विश्राम करने का कोई प्रष्न है ही नहीं । वे थके हुए गले से आरोप लगा रहे हैं वे सुन्न पड़ चुके दिमाग से कुछ भी बोलकर अपना भाषण समाप्त कर रहे हैं ।  उन्हं अपने ही पैर भारी होते महसूस होने लगे हैं । पर सवाल सत्ता सुख का है तो वोट तो मांगने ही पड़ेगें सो मांग रहे हैं । जिसके हाथ में सत्ता होती है लाठी उसके हाथो में ही होती है । वे अपने हाथों में आने वाली इस संभावित लाठी का भय दिखा रहे हैं । वे भय दिखाकर वोट पा लेना चाहते हैं । चुनाव अब भविष्य की कोरी कल्पनाओं के सहारे नहीं जीते जा सकते उनके लिए तो लाठी का भय दिखाना ही पड़ता है । गर्मी निकालने और चर्बी घटाने के नए मुहावरे चुनावी भाषा में जुड़ चुके हैं । हर बार के चुनाव में ऐसे ही कई नए शब्द जुड़ जाते हैं, पहले वे असंसदीय लगते हैं फिर वे संसदीय हो जाते हैं । चुनावी भाषा की डिक्षनरी बड़ी होती जा रही है । उत्तर प्रदेश के चुनाव में इस बार कुछ ज्यादा ही नए शब्द जुड़े हैं ऐसे ही पष्चिम बंगाल के चुनावों में भी नए शब्द जुड़ थे कुछ तो मुहावरे बन गए थे । चुनाव लड़ने वालों को इन नए शब्दों को रट लेना चाहिए । जिसकी लाठी उसकी भैंस का मुहावरा तो पुराना हो चुका है । पर यह मुहावरा अभी भी दमदार है । महंगाई बढ़ रही है निरंत बढ़ रही है । जो अपने हाथों में थैला लेकर बाजार जाता है उसे पता है कि गत महिने उसने तेल कितने रूप्ए लीटर खरीदा था । वह अपनी जेब में उसके हिसाब से ही पैसे लेकर जाता है पर वहां जाकर पता लगता है कि एक महिने के तीस दिन तो बहुत लम्बे होते हैं इन दिनों में उसकी आय कम हो गई है और दाम बढ़ गए हैं । वह अपने माथे से पसीना पौछकर सामान कम करा लेता है । आम आदमी परेषान है, उसकी परेषानी उसके माथे पर दिखाई दे जाती है । उसके हाथों में अपनी कोई लाठी नहीं है इसलिए उसके पास अपनी कोई भैंस है भी नहीं । वह दूसरों के हाथों की लाठी के चलते कठपुतली बना हुआ है । अभी तो उसे पेट्रोल के दाम बढ़ने का भी भय है जो चुनावों के चक्कर में रूके हुए हैं । लाठी वाले हाथों कोे तो अब बहाना भी मिल गया है ‘‘रूस युद्ध’ का । युद्ध होता है तो दाम तो बढ़ते ही हैं । अब वे अपना सीना चैड़ाकर बता पायेगें कि हमने भरसक प्रयास किया कि दाम न बढ़े पर अब तो बढ़ाना ही पड़ेगा । आम आदमी को अपनी मानसिकता बना लेना चाहिए कि आने वाले दिनों में उनकी जेब पर डाका पड़ेगा । उसकी आय भले ही न बढी हो पर महंगाई तो बढ़ ही चुकी है । चुनावों के बाद सत्ता का सुख तो कोई और भोगेगा पर बाकी सारे लोग तो केवल हताषा और निराषा का जीवन जीने मजबूर होगें । लाठी तो कोरोना पर भी चली, उस पर तो चलनी ही चाहिए थी । लाठी की मार में अपना सीना ताने खड़ा दिखाई देने वाला कोराना दम तोड़ते दिखाई देने लगा । कम से कम यह लाठी तो सही निषाने पर लगी । आम लोगों का भय कुछ कम हुआ । कोरोना की पाबंदियां खत्म हो गई है ।

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