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मानसिक रोगी हो रहे हैं लोग।

लॉक डाउन खुलने की प्रक्रिया निरंतर जारी है। ऐसा लगता है कि जनजीवन सामान्य हो गया है। सड़कों पर दौड़ती हुई गाड़ियाँ  पब्लिक ट्राँसपोर्ट से लेकर प्राइवेट दुपहिए चौपहिए वाहनोऔर छोटे, मध्यम कोटि के शहरों,  ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों में  पैदल चलनेवाले लोगों की बढ़ती हुई भीड़भाड़  देख कर ऐसा लगता है कि लोग सामान्य मनोदशा में आ गये हैं और गाड़ी पटरी पर सामान्य रूप से दौड़ने लगी है। पर यह वाह्य स्थिति हमें इस तथ्य को समझने नहीं दे रही कि लोग धीरे धीरे मानसिक रोगी होते जा रहे हैं ।यह रुग्णता किस कोटि की है कहना कठिन हैपर  क्रोध ,चिड़चिड़ापन अतिरिक्त शिथिलता, नकारात्मकता, अकारण भय , मैनिया आदि इनके व्यावहारिक  प्रगटीकरण हैं।योंतो सामान्य मनोदशाओं वाले लोगों में भी थोड़ी सी असमान्य स्थिति मे मानसिक विचलन होता है पर अभी कोरोना  कालावधि में विश्वव्याप्त भयने मन मे स्थायी भय भर दिया है। प्रगट रूप से कुछ लोग तो इसे सीधे से नकार भी देते हैं पर इर्द गिर्द किसी के इस चपेट मे आ जाते ही  पुनः भयभीत भी हो जाते है। यानि कि यह भय प्रच्छन्न रूप से सभी पर हावी ही है।साधारण  स्थितियों में होना तो यह चाहिए था किलोग निर्द्वन्द्व हो मात्र  वर्तमान में जीते , दुविधा खत्म हो जाती। पर, लॉकडाउन के निरंतर अधिक से अधिक खुलते जाने पर भी ऐसा नहीं हो रहा। हर प्रसन्नता के बीच कोरोना सचेतक बनकर सामने आ उपस्थित होता है।ऐसा लगता है ,लाइफ ऐब्सट्रैक्ट हो गया है, एक अयथार्थ केधरातल पर  सब खड़े हैं।तरह तरह की चिकित्सा पद्धतियाँ अस्तित्व में आ गयी हैं पर पूर्ण प्रामाणिकता का अभी भी अभाव है।परिणामतः समाज का एक तबका डर के साये में मृत्युपूर्व कीसाँसें ले रहा प्रतीत  हो रहा है ।लोग अपने ही जीवन से भागते हुए प्रतीत होते हैं।सगे सम्बन्धियों से भी बचता हुआ मानव किसी सामाजिकता का निर्वाह नहीं कर पा रहा है। असमान्य व्यवहार के तहत क्रोध का रह रह कर हावी हो जाना  नित्य की बात है। गृह कार्यों के बोझ का दुगुना हो जाना महिलावर्ग की परेशानी का कारण हो रहा है।लोग ,चाहे वे जिस वर्ग के हों, अपने लिए  वाह्य मनोरंजन के साधन  ढूँढ़ते है किन्तु एक अज्ञात भय. और तज्जन्य अतिरिक्त सावधानियाँ उन्हें हतोत्साहित करती हैं यह नैराश्य और मानसिक दबीव का कारण बनता है।  घर से ही काम करने वाले लोगों की अलग समस्याएँ हैं। वाह्य क्रियाशीलता का अभाव उनमे असामाजिकता, अकेलापन और गहन उदासी भरता है। रोजगार छिन जाने से परेशान लोगों की समस्याएँ विकट हैं । उनसे हम संभ्रांत आचरण की उम्मीद नहीं कर सकते।  कुल मिलाकर लोगों का मस्तिष्क सीधी राहों से भटका हुआ प्रतीत होता है   गैर सामाजिक कृत्यों में लिप्त होने अथवा आपराधिक कृत्यों में प्रवृत्त होने का यह भी एक  बड़ा कारण है।

लोग या तो चुप हो गये हैं अथवा अतिरिक्त और बिखरी हुयी बातें करने लगें हैं। सिद्धान्त की बातें लोग चाहे जितनी कर लें, पर इस भय ने सम्पूर्ण मानव समुदाय को बुरी तरह जकड़ लिया है ।जीवन बचाओ की मुहिम ने लोगों को मानसिक मृत्यु के मुख मे ढकेल दिया सा लगता है।

 बच्चे, विशेष कर विद्यार्थी वर्ग  ,वे चाहे जिस आयुवर्ग अथवा  जिस किसी  कक्षा में पढ़नेवाले क्यों न हों,  वे पारिवारिक अथवा सामाजिक गतिविधियों के केंद्र में होते हैं।विद्यालय जाने वाले बच्चे घर के घुटन भरे माहौल में समय व्यतीत करने को विवश है, हर किसी के पास स्मार्ट फोन नहीं कि वे आनलाईन क्लासेज का लाभ उठा सकें। परिणामतः वे घर में बन्द रहने की अपेक्षा बाहर  अननुशासित गतिविधियों में समय व्यर्थ करते हैं। सामने खड़े शिक्षक की अनुपस्थिति में दूरदर्शन आदि के पठन पाठन से सम्बद्ध कार्यक्रमों का लाभ भी नही लेना चाहते। उन्हे इस ओर प्रवृत्त करनेवाले लोगों की भी कमी है।इसतरह उनके मानसिक विकास पर तो नकारात्मक प्रभाव पड़ता ही है , अभिभावक  भी बुरी तरह मानसिक ग्रंथि से युक्त हो रहेहैं।अगर ऐसा अधिक दिनों तक रहा तो यह भविष्य मे उनके व्यक्तित्व में घोर असामाजिकता का सृजन करेगा और विद्यालयी शिक्षा की आवश्यकता के तमाम उद्येश्यों पर पानी फेर देगा।असामाजिकता का होना भी किसी मनोरोग से कम नहीं।

इस सन्दर्भ में मेरी मान्यता अब स्कूलों को खोल दिये  जाने की पक्षधर है।बच्चों की पढ़ाई के साथ अन्य बच्तों के साथ विद्यालय में होना परम आवश्यक है।केन्द्र की इजाजत के बाद भी कुछ राज्य इस सम्बन्ध में निर्णय नहीं ले पा रहे। तत्परता का अभाव एक बड़ा कारण है। सरकार, विद्यालय -प्रबंधन, और अभिभावक  तीनों की संयुक्त जिम्मेवारी हैयह। उन सबों को अपने अपने हिस्से की सतर्कता बरतते हुए इस दिशा में आगे बढ़ना होगा।लगता है ,ये सभी अपनी जिम्मेदारियों से कतरा रहे हैं।बच्चों को स्कूल भेजने में विलम्ब  उनके और राष्ट्र दोनों के व्यक्तित्व के लिए हानिकारक है।अगर यह इतना ही भयप्रद है तो वैक्सीन  देने यानि  टीकाकरण  के मामले में इस क्षेत्र को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए। स्कूल में बच्चों का होना पारिवारिक तनाव को कम कर सकेगा। ऐसा इसलिए भी कहना उचित जान पड़ता है कि इस लम्बी कालावधि में अभिभावक और बच्चे दोनो ही मास्क और दूरियों की उपयोगिता को समझ रहे होंगे और ससमझबूझ कर ही  अभिभावक बच्चों को विद्यालय भेजेंगे। अगर विद्यालय खुलेंगे ही नहीं तो इस ओर प्रगति कैसे हो सकेगी।

          मानसिक अस्वास्थ्य ने घरेलु वातावरण को भी प्रभावित किया है।लोग यातो अलग अलग रहने कोअभी भी विवश हैं अथवा लम्बे समय से साथ रहने को। परिणामतः घरेलु झगड़ों  का होना स्वाभाविक है। लम्बे खिंच जाने की स्थिति में कभी कभी इनका समाधान भी नहीं मिलता।परिणामतः तनाव बढ़ता है। अवसाद की घटनाएँ बढ़ रही हैं बढ़ती हुई आत्महत्याकी घटनाएँ इसके परिणामस्वरूप भी हो सकती हैं।

 आसपास के लोगों से दूरी बढा़कर स्वयं का बचाव करने की आदत एकबारगी बदल नहीं सकती।  यह स्वभाव का एक अंग बन जा सकता है। कोरोना 19 की दवा अथवा वैक्सीन उपलब्ध हो जाने पर भी टीकाकरण सम्पूर्ण देश में एक साथ नहीं हो सकता । यह लम्बा समय लेने वाला कार्यक्रम होगा। तबतक लोग  इन स्थितियों से जूझने को विवश होंगे ही।

मानसिक परेशानियों अथवा अवसाद की स्थितियों से निकलने के लिये लोग कई प्रकार के रचनात्मक कार्यो मे स्वयं कोजोड़ने की कोशिश भी कर रहे हैं।  पर आखिर घर में बंद वे कब तक ऐसा कर सकेगे।बाहर के भय से मुक्त होना तो सरल नहीं ही है। हम आशा  करें कि यह कोरोना काल शीघ्र समाप्त हो।

आशा सहाय  20- 10 -2020–।

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