जिसमें शामिल ज़मीं की धूल नहीं
वो बुलंदी हमें क़ुबूल नहीं
तीरगी बादलों की साजिश है
चाँद की इसमें कोई भूल नहीं
मुझपे तारी जमूद बरसों से
एक मिसरे का भी नुज़ूल नहीं
तू मुझे जब भी चाहे ठुकरा दे
देख इतनी भी मैं फ़िज़ूल नहीं
ग़म समेटे है सारी दुनिया का
दिल हमारा मगर मलूल नहीं
रोज़ शर्तों पे जी रही हूँ मैं
ज़िंदगी का कोई उसूल नहीं
कोई मौसम हो कोई भी रुत हो
प्यार मुरझाने वाला फूल नहीं
शायरी तेरा ये करिश्मा है
ख़ाली रहना भी अब फ़िज़ूल नहीं
सिर्फ अपने लिए जिया जाए
ये तो मेरा सिया उसूल नहीं
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हर तरफ एक जाल लगता है
यूं तो जीना मुहाल लगता है
चाँद तू भी उदास तनहा सा
मेरे जैसा निढाल लगता है
इस बरस सब नजूम उलटे हैं
साढ़े साती ये साल लगता है
कैसे उसने रिझा लिया सबको
वो यशोदा का लाल लगता है
तुझसे मिलना है जिंदगी का सबब
तेरा मिलना मुहाल लगता है
बेहिसी का गुबार छँटने लगा
दिल में फ़िर कुछ उबाल लगता है
शौक़ अब बोझ बन गया सर का
ये तो जी का वबाल लगता है
एक एक शेर इस ग़ज़ल का सिया
तेरे दिल का ही हाल लगता है
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जो बरसों डूबे रहें हैं पठन में, चिंतन में
जला है ज्ञान का दीपक उन्ही के जीवन में
परम्पराओं की इन बेड़ियों के बोझ तले
कटी है उम्र मेरी हर घड़ी ही उलझन में
यहाँ ग़रीबों को मिलती नहीं है क्यूँ रोटी
ये-वेदना ये व्यथा बस गई मेरे मन में
इसी उमीद पे गुजरी है ज़िंदगी अपनी
कभी तो आप नज़र आयें मेरे दरपन में
बस एक फ़ूल की क़िस्मत की आरजू की थी
तमाम काँटे सिमट आये मेरे दामन में
इस एक सच को समझने में लग गयी सदियाँ
बसे है राम सिया की हर एक धड़कन में
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