ढूँढ़ रही इस जगत में फिर
खुशहाली से भरा परिवार।
जिसमें थी बसती एकता
नेह अरु प्रेम गले का हार।
दादा-दादी औ चाचा-चाची
ताऊ ताई बुआ हर कोई।
चहल-पहल से घर जो गूँजे
सारी ही वो पलटन खोई।
सिमट गया दो जन में घर
रहता था हरदम गुलज़ार।
कुत्ते पलते बिल्ली पलती
इंसानों से होती अब दूरी।
होता अब है अपना कमरा।
बातें तब हो कोई मजबूरी।
मोबाइल पे जूझें निशि दिन
बना वही अब जीवन सार।
अब स्वार्थ के सारे ही रिश्ते
नेह प्रेम सब बना पुरातन।
अब तो सब हैं अंग्रेजी बाबू
भूल गए सब सीख सनातन।
ढूँढ़ रही इस जगत में फिर
खुशहाली से भरा परिवार।
डाॅ सरला सिंह ‘स्निग्धा’
दिल्ली