दिन छोटे, रातें लम्बी
सूरज की रोशनी का कोई भरोसा नहीं,
सर्द हवाओं के बीच
कभी दिन में अँधेरा, तो कभी रोशनी।
मौसम की इस आँख मिचौली में
सर्दी के दिनों में सूरज
धुँधले आसमां के किसी कोने से
कभी झाँकता है सिर उठाकर,
तो कभी छिप जाता है बादलों की आड़ में।
ऋतु भी रूठ जाती है,
दिखाती है अपना रौद्र रूप,
सफ़ेद चादर-सी बिछ जाती है
धरती पर बर्फ़ की,
परदा-सा लग जाता है
झिलमिलाती बूँदों का
आंँखों के सामने
और साम्राज्य छा जाता है
तीर-सी चुभने वाली शीत लहरों का।
सिहर उठते हैं धरा के बेसहारे बेज़ुबान,
जब छूकर निकल जाते हैं बदन को
बर्फ़ के छोटे-छोटे ओले।
बहाते हैं आँसू ख़ुद की दशा पर
छिपे किसी आड़ में,
सिकोड़ते हैं अंग-अंग
ठंड से बचने के खातिर।
न प्रकृति का आश्रय,
न खुले आसमां का साथ,
मौसम का मिजाज़ भी बदला-सा।
ऐसे में निकल पड़ते हैं वे
खुले परिवेश में
भोजन की खोज में
जान हथेली पर रखकर।
सर्दी कुछ भी कहे
पर डटे रहते हैं निरन्तर
शीत की जंग में बहादुरी से।
किन्तु तरस नहीं आता
समाज के नुमाइन्दों को
उन बेसहारों की दशा देख,
छिपा लेते हैं चेहरे किसी छोटे रुमाल से,
निकल जाते हैं चुप्पी साधकर
उन्हीं के बगल से
और कर देते हैं नज़रअंदाज़।
हो जाती है शर्मसार उनकी इंसानियत,
बह जाती है हमदर्दी
शीत लहरों के संग,
जो जा लगती है किसी साहिल पर
बस्ती से बहुत दूर
और समाँ जाती है मानवता
बर्फ़ीली रेत की कोख में,
जहाँ तिनका भी मयस्सर नहीं।
कवि – अरविन्द कुमार कबीरपंथी (रेडियो, उद्घोषक आकाशवाणी एवं शोधार्थी