कहानी बहुत पुरानी है———।
–मईयाँ—–मईयाँ—-।
यह स्वर सुनते ही सुधा दौड़कर दरवाजे पर गयी।उसका हृदय खुशी से भर गया। दृष्टि हाथों की कलाईयों पर जा पड़ी। यह स्वर चूड़ीवाले काथा।
माथे पर चूड़ियों कीटोकरी।कमर में चारखाने की रंगीन लुंगीलपेटे वह दरवाजे पर आकर हाँक लगा रहा था।उसकी कमीज सफेद थी जिसकी पूरी बाहों को उसने केहुनियों तक मोड़ रखा था। चमकीले रंगीन कागजों को साटकर उसने टोकरी को आकर्षक बनाने की चेष्टा कीथी। बरामदे में पड़ी चौकी पर सिर से उतार अपनी टोकरी रखी और वहीं बैठ गया। सुधा को बाहर आया देखते ही वह खुश हो उठा। चेहरे के पसीने को गमछे से पोछते हुए कहा–
–आओ मइयाँ देखो –तुम्हारे पसन्द की चूड़ियाँ कौन सी है!!और बहिनी कहाँ हैं?
–आती हैं चूड़ीवाले।
सुधा अपनी माँ को पकड़कर बाहर ले आई थी।
–अरे चूड़ीवाले -इसबार तो तुमने देर कर दी है। सुधाके हाथों की चूड़ियाँ पुरानी दिखने लगी हैं।
–हाँ बहिनी मैं थोड़ा बीमार हो गया था।आओ बिटिया पसंद करो चूड़ियाँ।
उसने सुधा की हथेलियों को मोड़ा ,चूड़ियों के साइज की कल्पना कीऔर तरह तरह की चूड़ियाँ दिखानी शुरु कर दी। दर्जनों के हिसाब से सबके दाम भी बताए।सुधा की माँ ने सुधा की इच्छा जानते हुए कटवर्क वाली कत्थई और गहरे हरे रंग की चुड़ियाँ पसन्द की। वह चार से ज्यादा चूड़ियाँ नहीं पहनती पर चूड़ीवाले ने तरह तरह की बातें बनाते हुए कुछ चूड़ीबन्द दिखाए और चूड़ियों मे सजाकर उसे सुधा को पहना दिए।
—बहिनी –बिना बन्द के चूड़ियाँ कबतक टिकेंगी। और देखो सुन्दर भी लगती हैं न।सुधा मइयाँ के हाथों में तोहर चूड़ी फबती है।
सुधा की माँ ने पैसे दिए और चूड़ीवाले को पानी भी पिलाया।
–अगली बार जरा जल्दी अइयो भइया।
–हाँ हाँ बहिनी।
चूड़ीवाला एक निश्चित अंतराल पर आता और सुधा की पसन्द जानकर निश्चित ही चूड़ियाँ बदल जाता।सुधा की माँ भी उसीसे चूड़ियाँ खरीदतीं। उसके हाथों चूड़ियाँ पहनने में न सुधा को झिझक होती न सुधा की माँ को। धीरे धीरे उसने इस परिवार से एक अपनापा सा विकसित कर लिया।मईयाँ ,मईयाँ की आवाज सुनते ही वह बाहर बरामदे मे चली आती और उसकी टोकरी को सहारा दे देती।
दिन गुजरते गये। सुधा के हाथों में उसी की दी हुई चूड़ियाँ दमकती रहीं।किन्तु सुधा का चूड़ियाँ पहनने का शौक उसके कॉलेज जाने के साथ ही कम होता गया। समय बदल चुका था। बाजार में चूड़ियों की सजी सजायी दुकानें लड़कियों को आकर्षित करने लगी थीं। घर पर लाकर चूड़ियाँ पहनाने वालों का प्रभाव कम होता गया।पर चूड़ीवाला कभी सुधा के दरवाजे से बिना चूड़ियाँ पहनाए निराश होकर वापस नहीं गया। उसकी मईयाँ और बहिनी का स्वर अब अधिक आत्मीय हो चला था। चूड़ी वाले की लुंगी और कमीज में कोई परिवर्तन नहीं आया पर वे साफ अवश्य होते थे।सुधा ने चूड़ी बॉक्स खरीद ली थीऔर पहनी हुई चूड़ियाँ उसमें उतार कर रखने लगीथी।
समय सर्वदा एक समान नहीं रहता।हर व्यक्ति उसका शिकार होता है। कुछ समय की झंझा से अप्रभावित हुए भीउसे झेल जाते हैं और कुछ उसमें घर की सारी व्वस्थाओं के साथ हिल जाते हैं सुधा का मध्यमवर्गीय परिवा रबढती हुई महँगाई से कुछ अधिक ही प्रभावित हो रहा था । एकमात्र कमाने वाले सुधा के पिता का व्यवसाय एक ठहराव पर आता प्रतीत हो रहा था। वे एक वकील थे पर वकीलों की भीड़ में अपनी बहचान को कुछ अधिक जगाए रखना उनके वश की बात तो नहीं थी। उनका धर बार चलता रहे,बालबच्चों की पढाई चलती रहे और अतिथियों के आदर सत्कार से उनके सम्मान की रक्षा होती रहे , बस इतनी उनकी आकाँक्षा थी, यह अबतक पूर्ण होती रही थी।
हाँ तो, दुर्भाग्य से सुधा का परिवार कुछ अधिक प्रभावित था। अन्य सारे आवश्यक खर्चों के साथ पढाई का खर्च यूनिवर्सिटी में पढाई के बढते खर्च आदि परिवार के लिए बोझ बन रहेथे।पर इन मोर्चों पर परिवार ने हिम्मत नहीं हारी थी,न ही अपने सिद्धांतों के साथ ही कोई समझौता किया था।
कभी कभी मानवीय भावनाओं का विस्तार अपने भौतिक अभाावों की परवा नहीं करता वरन् ऐसी स्थितियों में उसे उदार से और अधिक उदार बनाता जाता है। सुधा की माँ के प्रेम भरे अपनापन में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही थी।शायद चूड़ीवाले सलीम भाई की अधपकी दाढ़ी ने अनुभवी आँखों की भूमिका निबाही थी।
चूड़ियाँ महँगी हो रही थींऔर अक्सर कम पैसों मेंचूड़ीवाले से चूड़ियाँ खरीदने में सुधा और उसकी माँ को झिझक महसूस होती । फिर भी न चूड़ीवाले का एक नियमित अंतराल पर उसके दरवाजे पर आकर हाँक लगाना कम हुआ और न सुधा ने चूड़ियाँ खरीदनी बन्द की।।
सुधा को अपनी माँ की यह दरियादिली कभी कभी अखरती भी थी। जब वह उन्हीं चूड़ियों को अदल बदल कर पहन ही सकती है तो चूड़ीवाले से हरबार चूड़ी खरीदनी जरूरी तो नहीं।
–उतारी चूड़ियाँ तुम दुबारा क्युँ पहनो–?
–क्यों ?
–यूँही।और चूड़ीवाले को दरवाजे से लौटाना भी सही नहीं।
–क्यूँ?
– असगुन होता है बेटी।
सुधा से इन बातों को काटते भी नहीं बनता। पर कभी कभी स्थिति विपरीत भी होती चवी जाती है। बाजार से चूड़ियाँ खरीदने प्रवृति बलवती होते जाने के कारण चूड़ीवाले की टोकरी हल्की होती जा रही थी।उसके लाल पीले पन्नियों की सजावट अब आधी अधूरी हो रही थी।साधारण सी चूड़ियाँ जो निम्न वर्ग की रुचि के अनुकूल होती थीं वे तो बिकती थीं . अतः अधिकांशतः वैसी चूड़ियाँ ही उसकी टोकरी में होती थीं। पर कुछ लच्छे अभी भीवैसे होते थे जो अभिजात्यवर्ग की पसन्द के अनुरूप होते थे।वह टोकरी लेकर चौकी पर अवश्य बैठता और करीब करीब जबह्दस्ती ही चूड़ियाँ सुधा और उसकी माँ की कलाईयों में सरका देता।
–चूड़ीवाले भइया– तुम्हारी ये चूड़ियाँ तो महँगी हैं। अभी इतने पैसे मैं चूड़ियों पर खर्च नहीं करना चाहती।
–बहिनी- रहने दो।-तुमने कब ऐसी साधारण चूड़ियाँ पहनी हैं जो आज पहनोगी। तुम्हारे लिए खास लाता हूँ। पैसे नहीं चाहिए मुझे। जब होगा एकबार ही दे देना।
–पर भईया–इन चीजों को मोलभाव करके तो खरीदा नहीं जाता।
— मैं जानता हूँ बहिनी। मत करो मोलभाव। तुम कहाँ कम पैसे देती हो। आज गर्मी बहुत है। थोड़ा पानी ही पिला दो।
चूड़ीवाले का सम्बन्ध सुधा और उसकी माँ से सामान्य से कुछ अधिक गहरा होता चला जा रहा था।
–चूड़ीवाले भाई। तुम मेरे हाथ की रोटियाँ खा सकते हो न।
–हाँ । क्यों नहीं बहिनी।बल्कि आज तो मैंने कुछ खाया भी नहीं है।आज पानी के साथ दो रोटियाँ भी दे दो।
सुधा की माँ ने एक तश्तरी में उसके लिए दो रोटियाँ भी ले आई। चूड़ीवाले ने उसे यूँ खाया मानों कई दिनों का भूखा हो।बहिनी की ओर अश्रूभरे आँखों से देख। फिर अपनीवटोकरी उठाकर चला गया। सुधा कीमाँ की आँखें भी भींज आईँ।
अक्सर ऐसा होता रहा।चूड़ीवाले ने भी उसे अपना अधिकार सा समझ लिया।वह अब वृद्ध हो चला था पर सुधा के लिए चार नयी डिजाइन की चूड़ियाँ लाना वह नहीं भूलता।
–बहिनी आज मईयाँ के लिए जो चूड़ियाँ मैंने देखी हैं वह उसकी गोरी पतली कलाइयों में बहुत फबेंगी।मईयाँ कहाँ है। मैं उसे दिखाउँगा। और सुधा को बाहर बरामदे में आकर चूड़ियाँ लेनी ही पड़ती।
जाने कितने मौसमों ने अपनी शोभा बिखेरी। और कुछ सालों बाद सुधा का विवाह हो गया। विवाह में सलीम चूड़ीवाले की चूड़ियाँ काम न हीं आईं और अपनी वृद्ध अवस्था के कारण वह अब अक्सर फेरी लगाने में भी असमर्थ हो चला था।
माँ के रुग्ण होने की सूचना पा सुधा घर चली आई थी। एक दिन सुधा ने देखा–ताखे पर सुधा के लिए खरीदी चूड़ियों के बगल में एक साधारण सी राखी भी रखी थी।”माँ तो किसी को राखी बाँधती नहीं फिर यह राखी किसके लिए रख छोड़ी है उन्होंने।”रक्षाबंधन भी दूर है अभी।ऐसा सोच उसनेपूछ ही लिया-
—–माँ ये राखी किसके लिए है?क्या तुम्हें किसी को बाँधनी है?
–हाँ सोचती तो हूँ।
–किसे माँ?
— है न एक।
सुधाबहुत सहज अनुमान तो नहीं कर सकी पर माँ के हृदय को समझनेवाली बेटी को कुछ संशय हो चला था।– माँ क्या उसे जिसकी तुम बहिनी हो?
सुधा की माँ एक खिसियानी सी हँसी हँस कर रह गयी।माँ की भावनालदेख सुधा अत्यधिक चकित थी।
पर शायद वो अवसर नहीं आ सका।राखी का अवसर बीत गया । वह सुधा की माँ बीमार पड़ गयी। काफी दिन हुए चूड़ीवाले ने बरामदे में कदम नहीं रखा।
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घर में शोक का माहौल था । अपनों और परायों ने सुधा की माँ को घेर रखा था।लाल रंग की बनारसी साड़ी में लिपटी वे जमीन पर पड़ी थीं । सुधा बार बार उनसे लिपटकर रो रही थी। वह उनसबों को छोड़ परमधाम को प्रस्थान कर गयी थीं। अचानक सुधा ने एकपुकार सुनी।
–मईयाँ—sss, बहिनी sss
आवाज कुछ दूर से आरही थीपर सुधा ने पहचाने में भूल नहीं की– चूड़ीबाले मामा–। वहदौड़कर बदहवास सी बाहर आ गयी। हाथों में बिलकुल छोटी सी टोकरी लिए वह धीरे धीरे ही आ रहाथा। उसे चलने में कठिनाई हो रही थी। दरवाजे पर आ उसने फिर पुकारा–
–बहिनी–sss – —मईयाँ sss
सुधा ने लपककर उसका हाथ पकड़ा।
–चूड़ीवाले मामा–तुम्हारी मईयाँ तो देखो मैं खड़ी हूँ परवहिनी—
बहिनी बहिनी बोलकर वह लड़खड़ाने लगा।सुधा उसे पकड़कर अन्दर ले आई। उसने दिखाया कि उसकी बहिनी फर्श पर पड़ी है।
–बहिनी तुम्हारे लिए आज अच्छी चूड्ियाँ लाया हूँ। अब शायद नहीं आ सकूँगा।
सुधा ने उसके हाथों से चूड़ियों की माला लेलीऔर माँ का चेहरा खोल कर दिखाया। मुख देखकर वह वहीं घहराकर बैठ गया।
–बहिनी—–sss
उसकी आँखों से आँसू की अविरल धारा प्रवाहित हो रही थी।सुधा ने देखा, कहा–
— मामा माँ ने तुम्हारे लिए यह राखी रखी थी।
ताखे से उतारकर उसने राखी उसके हाथों में पकड़ा दी। वह जार बेजार रोने लगा।
लोगों की समझ में कुछ नहीं आ रहा था पर वे मुँहबोले भाई बहन के इस प्रेम को देख स्तम्भित थे।
टोकरी की शेष चूड़ियाँ सुधा ने माँ के बगल में रख दीं।
–लो माँ तुम्हारे इस भाई का प्रेम। तुमने इसी के लिए ही राखी रख छोड़ी थी न।
किसी के आँसू थमने का नाम नहीं ले रहेथे।
—- —- —-समाप्त आशा सहाय