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जीवन का सार

गृहस्थी का दायित्व,

कब अवसान देता है,

गाड़ी-सा जीवन

जिम्मेदारियों की

सड़क पर,

सरपट दौड़ता है,

अहर्निश

अविराम।

स्व मनोरथ

श्रम-भट्ठी में

झोंकता है,

स्वजनों के

काम्यदान

के लिए।

तब

प्रमोद-सरिता

अविरल

बहती है,

परिजनों को

भिगोती है

अपने सुखदायी

मेघपुष्प से।

कर्तव्यों की

वृत्ति

अंततः

जीर्ण बना देती है,

पराश्रित बना देती है।

बस

यही है

जीवन का सार।

विनोद वर्मा ‘दुर्गेश’,

तोशाम, जिला भिवानी,

हरियाणा

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