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भाषायी सम्पदा से परिपूर्ण भारतीय भाषाएँ

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

भाषायी सम्पदा से परिपूर्ण भारतीय भाषाएँ हर काल और परिस्थिति में समृद्ध हैं। भारत के महान संतों, भक्ति कालीन कवियों, लोक-गायकों, मनीषी विद्वानों ने सभी भारतीय भाषाओं में ऐसा अद्भुत साहित्य सृजन किया जिसमें जगत कल्याण की भावना ने शब्द को ब्रह्म सिद्ध किया और आध्यात्मिक चेतना के स्तर तक पहुंचा दिया। भारत की सभी सशक्त भाषाओं में प्रचुर मात्रा में साहित्य का सृजन हुआ है। यदि गौर किया जाए तो हम समझ सकेंगे की भारत में इतनी समृद्ध भाषाएँ होने के बावजूद क्यूँ हमारी भाषाएँ आज भी अपने अस्तित्व और अस्मिता के लिए संघर्ष कर रही हैं, हमारी कुछ भाषाएँ और बोलियाँ मृत-प्राय: होती जा रही हैं और आज भी हाशिये पर खड़ी सवाल पूछती रहती हैं।

​भाषा की दृष्टि से भारत की स्थिति सदा से बिलकुल भिन्न रही है। सैंकड़ों वर्षों की गुलामी के दंश को झेलते-झेलते देश की ये दशा हो गयी की भाषाएँ पूर्ण रूप से किसी भी क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज न करा सकीं ।भारत जैसे बहुभाषी देश की स्थिति को देखें तो अत्यंत पीड़ा का अनुभव होता है। संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को स्थान मिलने के बाद भी कुछ समय पूर्व तक स्थिति यथावत थी परंतु नयी शिक्षा नीति में भाषाओं  के प्रति पूर्ण निष्ठा बरती गयी है ।

जिस आत्मनिर्भर भारत का स्वप्न हमने देखना प्रारंभ किया है, उसका मूल तत्व निहित है अपने समाज, अपनी संस्कृति, अपने ज्ञान एवं अपनी दक्षता के मूल्य को समझकर उन पर सर्व प्रथम स्वयम्‌ विश्वास करना। यह आत्मविश्वास केवल अपनी भाषा से निरंतर जुड़ाव से ही प्राप्त होता है। दूसरा, जो नागरिक, ज्ञानी, शोधज्ञ, उद्यमी अपनी ‘आत्म भाषा’ से जुड़ा होगा, वही अपने समाज में प्रचलित लोक ज्ञान एवं लोक उद्यमों को जानेगा, बुझेगा और उनकी खूबियां दूसरों को समझा पाएगा। परंतु यहाँ इस बात का उल्लेख करना समीचीन है कि स्वतंत्रता पूर्व ब्रिटिश शासन काल के 200 वर्षों में भारत ने भाषाई दासता भी झेली। अंग्रेजी भाषा के प्रभुत्व और वर्चस्व ने भारतीय भाषाओं की जड़ों को कमज़ोर कर दिया। अंग्रेजी भाषा को जानना ईलाइट क्लास का प्रतीक बन गई। ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी को स्वीकार करते करते समस्त भारत में भाषाई गुलामी की जड़े मजबूत हो गई.। व्यापार ,वाणिज्य, शिक्षा, जनजीवन में अंग्रेजी की जड़े फैलती चली गई और आज आजादी के इतने सालों के बाद भी हम इस भाषा के वर्चस्व के साक्षी हैं। क्या कारण है कि हम बहुभाषिकता और विशिष्ट संस्कृति और दर्शन से समृद्ध राष्ट्र होकर भी स्व भाषा में चिंतन नहीं करना चाहते। अंग्रेजी का महिमामंडन इस प्रकार किया गया कि गली मोहल्ले में खुले विद्यालय स्वयं को इंटरनेशनल स्कूल कहलाने लगे।

​भारत जैसे बहुभाषी देश में हमें यह समझना होगा कि तकनीकी शिक्षण से जुड़े संस्थानों में इस प्रकार की व्यवस्था और वातावरण हो कि मात्र भाषा के कारण संस्थानों से छात्र ड्रॉप आउट न हों। इसी के साथ स्व भाषाओं में  नए नए रोजगार के अवसरों पर विचार करना बहुत ज़रुरी है । देश की बड़ी युवा शक्ति के हुनर,कौशल और प्रतिभा को स्व भाषा में चिंतन के आधार पर मुखर होकर सामने आने का अवसर मिले। किसी भी विषय को अपनी भाषा में समझना और सीखना आसान है। हालाँकि चुनौती बहुत बड़ी है परंतु तकनीकी,वाणिज्य, व्यापार आदि से संबंधित विषयों के साहित्य को अनुवाद के माध्यम से सरल सहज भाषा में अनूदित करके पाठ्यक्रम तैयार किए जाएँ। इसी क्रम में गृह मंत्रालय भारत सरकार के अंतर्गत राजभाषा विभाग द्वारा हर वर्ष देश भर में हिंदी भाषा के सम्वर्धन हेतु राजभाषा सम्मेलनोन का अयोजन किया जाता है, तथा इस क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान देने वाले विद्वानों को पुरस्कृत भी किया जाता है । इसका उद्देश्य है कि व्यवहार में स्व भाषा का प्रयोग राष्ट्रीय गौरव की बात हो ना कि हीनता या अज्ञानता का प्रतीक।

​वैश्वीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में हम अंग्रेजी के विरोध में नहीं है। छात्र अंग्रेजी भाषा को अन्य भाषा की तरह सीखे पर यह किसी के लिए बाधा और बाध्यता का कारण ना बने। जहां हम विकास के पथ पर अग्रसर ‘मेक इन इंडिया’,’आत्मनिर्भर भारत’, ‘कुशल भारत कौशल भारत’ जैसी संकल्पनाओं को अर्थव्यवस्था का आधार बना रहे हैं ऐसे में हमारी स्व भाषाओं को एक दूसरे के साथ तालमेल बिठाते हुए मुखरित होने का अवसर प्राप्त होना चाहिए। विभिन्न पाठ्यक्रमों का सरल भाषा में अनुवाद होता रहे।सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में क्रांति आ गई है इसके माध्यम से भाषाओं के प्रचार प्रसार को  एक प्लेटफार्म मिला है ।शिक्षण के कई नए तरीकों पर शोध और अनुसंधान हो रहें हैं और नवाचार के विकास से कोई भी शिक्षा से वंचित नहीं है । सारांश यह है कि देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए निज भाषाओं को मजबूती देनी होगी, लोक व्यवहार में इनका अधिकाधिक प्रयोग करना होगा। प्रादेशिक स्तर पर प्रांतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम से आगे बढ़ाने का प्रयास सार्थक सिद्ध हो सके जिससे समाज में सभी वर्गों को मुखरित होने का अवसर मिल सके।

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