रोहन बड़े ही सहज भाव से पास आकर खड़ा हो गया,“मैम आप कहती तो हैं कि तुमलोग डॉक्टर, इन्जीनियर ,शिक्षक कुछ भी बन सकते हो, परंतु हमारे यहाँ तो दो जून का भोजन भी मुश्किल से बनता है, हमारे माँ-बाप हमें कहाँ से डॉक्टर और इन्जीनियर बनायेंगे? उसमें तो बहुत अधिक पैसे लगते हैं।” वह एक सांँस में कह गया। मैंने फिर भी हार नहीं मानी मैंने एनजीओ तथा सरकार द्वारा प्रदत्त सुविधाओं के बारे में पूरी क्लास को विस्तार से बता डाला लेकिन रोहन के प्रश्न ने वाकई मुझे भी झिंझोड़ दिया था। मैं स्तब्ध-सी रह गयी थी, वाकई हम लोग आदर्श तो इतना बघारते हैं किन्तु उन बच्चों का क्या जो न तो पैसे वाले घरों से हैं और न ही उनके अंकों का प्रतिशत ही इतना ऊँचा होता है या हो पाता है। अमीर घरों के बच्चे तो
अच्छे स्कूलों के साथ ही साथ ट्युशन भी पढ़ते हैं
किन्तु गरीब घरों के बच्चों को तो पढ़ाई के साथ ही साथ घर चलाने के लिए बाल मजदूरी भी करनी पड़ती है।
उन दिनों मैं जिस विद्यालय में पढ़ाती थी उसमें लड़के ज्यादा पढ़ते थे,लडकियों की संख्या उनकी तुलना में बहुत ही कम थी। मैंने गौर किया कि कई लड़के पढ़ने के बाद कम्पनी में काम भी करने जाते थे। मैंने स्वयं देखा था कि कुछ बच्चे अपने बैग में शर्ट रखकर लाया करते थे और छुट्टी होने के बाद स्कूल की सफेद शर्ट पॉलिथिन में रखकर उसे बहुत सहेज कर स्कूल बैग में रख देते थे और अपने दोस्त के हाथों अपने घर भिजवा देते थे।कुछ बच्चे तो मेरे साथ ही नोएडा मोड़ तक आया करते थे। नोएडा में ही ज्यादातर फैक्टरी हुआ करती थीं। एक बाल मजदूर हमारे साथ- साथ चल रहा है,और मैं अपने ही हाथों उसका किराया दे रही हूँ, कैसी अजीब-सी बिडम्बना लिए होता था ये समय। मैं उन बच्चों को बाल-मजदूरी से मुक्त न करा पाने की पीड़ा से जूझती ही रह जाती थी। कभी-कभी तो लगता था कि काश ! मेरे हाथों में इतना पैसा होता कि मैं सब बच्चों की मदद कर सकती।
मैं ज्यादातर ही जो बच्चे फीस नहीं भर पाते थे
उनकी फीस अपने पास से ही जमा कर देती थी। स्कूल के बच्चों को मेरी इस आदत का पता था सो दूसरी कक्षा के वे बच्चे भी मेरे पास आ जाते थे जिनके पास फीस नहीं होता था। मेरी ही कक्षा में एक शहरोज़ नाम का लड़का था जिसके पापा एक एक्सीडेंट में ही गुजर गये थे। तब वह सातवीं कक्षा में ही पढ़ता था । मैंने उसको बहुत समझाया, मैंने उसकी फीस भी भरी किन्तु धीरे-धीरे न जाने क्यों उसका विद्यालय आना कम होता ही जा रहा था। मैं उसे उसके घर से बुलवा लेती तो वह कभी-कभी तो बहुत ही झल्ला-सा जाता। हाँ मगर मेरे बुलाने पर आ जरूर जाता था । एक बार तो मेरे ऊपर बिगड़ ही गया ,“मैम क्या बात है? आप मुझे बार-बार क्यों बुलाती हैं? मुझे अब नहीं पढ़ना है।”और मैंने कहा था कि,“दो चांँटा लगायेंगे,सब ठीक हो जायेगा।” और फिर मैंने उसे बड़े ही प्यार से पास में बैठाकर समझाया था कि बेटा तुम बारहवीं तक भी पढ़ लोगे तो कम से कम ऐसी नौकरी पा जाओगे जो तुम्हारे परिवार के लिए सुखदायी हो। आखिरकार उस बच्चे ने बारहवीं कर ही लिया। उसे मेरी बात याद रही। बाद में उसने मेरे पास आकर इसके लिए धन्यवाद भी कहा।
ऐसे कई बच्चों से भी बात हुई जिनकी इच्छा पढ़ने की थी पर वे पढ़ नहीं सके । एक बार एक रिक्शेवाला जिसकी उम्र करीब बीस या बाइस रही होगी, देखने में लग रहा था कि पढ़ने में बहुत ही अच्छा रहा होगा। पढ़ाते-पढ़ाते आँखें ऐसी हो गई हैं कि बच्चों को देखकर ही आभास हो जाता है कि बच्चा पढ़ने में कैसा होगा सो आदतवश उससे भी उसकी पढ़ाई के बारे में पूछ ही लिया।उसने बताया कि ,“मैडम मैं पढ़ने में बहुत अच्छा था किन्तु कुछ साल पहले अचानक बीमार होने के कारण पिता जी नहीं रहे और घर की सारी जिम्मेदारी मेरे ऊपर आ गई । माँ भी बीमार थी, वे ज्यादा काम नहीं कर सकती थी अतः उसे पढ़ाई छोड़कर काम करना पड़ा।अगर पिता जी होते तो मैं अवश्य पढ़ता ।उसने करीब तीन-चार बार यही लाइन दुहरा दी
थी । मैंने उसे ओपेन स्कूल के बारे में बताया कि अब से भी कोशिश करे तो अपनी पढ़ाई की इच्छा को पूरी कर सकता है। किन्तु आदर्श और यथार्थ में बहुत अन्तर होता है, घरेलू परिस्थितियों में उलझने साथ ही आर्थिक रूप से कमजोर होने पर सब कुछ सकारात्मक ही नहीं हो सकता।
हरीश हाँ, हरीश ही नाम था उस लड़के का करीब अट्ठारह या बीस की आयु रही होगी। उसने पाँचवी के बाद ही अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी। केवल
घरेलू परेशानियों के कारण ही उसे भी अपनी पढ़ाई
छोड़नी पड़ी थी। इधर-उथर काम करते करते वह अब एक कपड़े की दुकान पर काम करने लगा था । आदतवश मैंने उससे भी उसकी पढ़ाई के बारे में पूछ ही लिया था। उसे मैंने कोशिश करके ओपन स्कूल से फॉर्म भरने के लिए तैयार भी कर लिया साथ के एक शिक्षक को भी उसकी मदद के लिए तैयार कर लिया पर वह बच्चा अपने ऊपर विश्वास न बना सका और पढ़ने के लिए तैयार होकर भी उसने अपने कदम पीछे खींच लिये थे। उसने बस यही कहा ,“मैम अब मुझसे दो-दो काम एक साथ नहीं हो पायेंगे।” अब मैं कैसे पढ़़ूँ ? मैं क्या कहती फिर भी मैंने उसे समझाने का प्रयास किया, पर असफल रही ।
मुझे अच्छी तरह याद आता है कि लक्ष्मी नाम
की एक लड़की के ससुराल वालों से मेरी अच्छी जान-पहचान थी। भोला नाम के लड़के से उसकी शादी हुई थी । शादी के पहले दिन जब मैं उसे देखने गई तो वही हुआ कि मैंने उसकी पढ़ाई के बारे में पूछा फिर बारहवीं में प्राप्त अंकों के बारे में पूछा तो पता चला कि वह तो पढ़ने में बहुत अच्छी है। मैंने तुरन्त उसकी सास,पति तथा अन्य लोगों से बात की और कहा कि उसे उसके मायके में रखकर पढ़ायें और पढ़ाई पूरी होने तक उसकी विदाई भी
न करायें । उन लोगों ने मेरी बात ज्यों की त्यों बात मान ली और वह लड़की अपनी पढ़ाई पूरी करके
अपने पैरों पर खड़ी हो सकी । यह तो उस परिवार
की कहानी थी जो की आर्थिक रूप से सक्षम थे
लेकिन जो आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होते वे लोग
क्या करें? बेबी की कहानी इससे उलट है ।वह भी पढ़ने में अच्छी थी पर आर्थिक कमजोरी के कारण उसके माँ -बाप उसे नहीं पढ़ा सके और वह घरों में काम करने के लिए मजबूर हो गयी थी। यही नहीं
पन्द्रह सोलह तक तो उसका विवाह भी करा दिया उसकी माँ ने। बेबी की बहुत इच्छा थी कि वो आगे की पढ़ाई करती पर उसके पापा रिक्शा चलाते थे,वे बहुत ही ज्यादा बीमार हो गये अब बेबी के पास अपनी माँ के साथ घरों में काम करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचा था। एक मजदूर लड़के का रिश्ता मिलते ही उसकी माँ ने उसकी शादी भी कर दी । मैंने बेबी की माँ को बहुत समझाना चाहा किन्तु वो नहीं मानी बोली ,“मैडम एक तो हम गरीब लोग हैं दूसरी तरफ ये जमाना बहुत बुरा है,किसी पर विश्वास ही नहीं किया जा सकता। मैं लड़की
को ज्यादा दिन अपने पास नहीं रख सकती आदि- आदि न जाने क्या-क्या और मैं चुपचाप सुनती ही रही। कुछ न कर पाने की पीड़ा मुझे त्रस्त कर रही थी।
डॉ.सरला सिंह,‘स्निग्धा’
दिल्ली।
