जब कब अब और तब जैसे शब्द निरर्थक हैं अगर इनके साथ काल नहीं जुड़ा हो।पूर्वोक्त शब्दों से हम काल को मापने का दम्भ भरते हैं। वस्तुतः भौतिक दृष्टि से इसे मापना अत्यंत कठिन है। यह अपनी व्यावहारिक सुविधा के लिए करना चाहते हैं ताकि दो घटनाओं के मध्य की स्थिति को हम मस्तिष्क मे उसकी दृश्य दूरी का प्रत्यक्ष कर सकें।पर काल तो मापने जैसी कोई वस्तु है ही नहीं। वह स्वतंत्रऔर ऐब्सट्रैक्ट है। उसका कोई वास्तविक स्वरूप नहीं। अपने विचारों, वस्तुओं की गति और तद्जनित प्रयत्नों के अनुसार हम उसे स्वरूप प्रदान करते हैं। उसे भूत वर्तमान , और भविष्य से जोड़ना चाहते हैं।वस्तुतः वह एक अदृश्य स्थिति है, एक बल है,जिसे दूसरे वस्तुओं के गत्यात्मक परिप्रक्ष्य मे ही हम मापने का दुस्साहस करते हैं। सूर्य चन्द्रादि ग्रहनक्षत्रों की गतियाँ उनसे प्रभावित ऋतुओं की स्थितियाँ यानि आकाशीय पिण्डों की सक्रियता चाहे वे उनकी आकर्षण शक्ति के ही फलस्वरूप क्यों न हों एक विशेष जिस निश्चित स्थिति का द्योतन करती हैं उस मध्य तुलनात्मक स्थिति को हम काल की संज्ञा दे उसे मापने की चेष्टा करते हैं।।
वस्तुतः काल कुछ नहीं है अथवा उसकी निर्माणात्मक और ध्वंसात्मक स्वरूप का अभिज्ञान हमारी दृष्टि में उसे सबकुछ बनाता है। यह जो सबकुछ है वह सबको ,सम्पूर्ण सृष्टि को निगलता हैऔर अपने चक्रीय स्वरूप से उसका निर्माण भी करता है। वह अदृश्य है पर इन्ही कारणों से दृश्यमान अथवा अनुभूतिजन्य भी है। निर्माण और ध्वंस उसके दो ध्रुवीय सत्य हैं जगत के अन्दर उसकी इस भूमिका को सभी अनुभूत करते हैं, पर उसके मूल कारक काल को हम नहीं देख सकते।वह अदृश्य रूप से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कार्यकलापों का सम्पादन करता है।कहीं वही ब्रह्म तो नहीं।
अगर ऐसा भी सोच लें तो गलत क्या है? अगर श्रीमद्भगवद्गीता को हम पौराणिक सत्य का प्रमाण मानते रहे हैं तो महर्षि व्यास ने भगवान कृष्ण के विराट रूप के मुख से कहलवाया है—कालोSस्मि लोकक्षयकृतप्रवृद्धो
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।
अर्थात मैं काल हूँ सभी लोकों का सम्पूर्ण रूप से नाश करनेवाला ,और यहाँ सभी का नाश करने के लिए ही आया हूँ। फिर शंका क्यों।
वेदों में ब्रह्माण्ड निर्माण के संदर्भ में कहा भी है—कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के पूर्व कुछ भी नहीं था अंधकार से भी गूढ़ अथवा गहन अंधकार था। न दिन था न रात थी। यह दिन और रात के पूर्व की स्थिति प्रवहमान काल की शून्य स्थिति रही होगी।अगर इसे काल की लयात्मक चक्रीय स्वरूप की वह स्थिति मान लें जिससे ब्रहमाण्ड के बीज उत्पन्न होते हों , सृष्टि के साथ प्रकाश और अन्धकार का प्रस्फुटन होता हो तो यह काल ही कारणस्वरूप हो सकता है। वह स्थिति जिसका रूप और आकार नहीं। प्रकाश और अन्धकार की विभिन्न स्थितियों से ही जिसका मापन संभव हो सका, वह काल परमब्रह्म स्वरूप ही है।
काल की स्थिति भी बुद्धि, चेतना अथवा ब्रहमाण्डीय चेतना के समान हीहै।मस्तिष्क मे अबतक उसकी ठोस स्थिति का प्रमाण नहीं मिल सका है। आजके विज्ञान ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इजाद कर इसकी ब्रह्माण्डीय स्थिति को चुनौती दी है। ऐसा संभव भी क्यों न हो क्योंकि निर्माण और ध्वंस की परम शक्ति तो मनुष्य को भी प्राप्त है। सारे उपनिषदों ने इस सर्वश्रेष्ठ,सर्वोन्नत जीव में ब्रह्म स्वरूप के दर्शन किए है।
इस सन्दर्भ में कुछ बातें जो ध्यानाकर्षित करती हैं ,मन के किसी कोने मे उसके प्रतीकात्मक स्वरूप से उसके आध्यात्मिक स्वरूपको मिलाकर देखने मे एक छाया स्वरूप की प्रतीति होती है जब हम कृष्ण ,महाकाली के शास्त्रीय वर्ण को उस काल से जोड़कर देखते हुए उसमें उस विराट स्वरूप की भूमिका के दर्शन करतें हैं जोजीवात्मा के शुद्धिकरण की प्रक्रिया मे सबको निगलती चली जाती है।वस्तुतः काल शून्य हैऔर हर जगह वर्तमान है।यह निस्सीम है।उसके प्रति हमारी अनुभूतियों को धीमा या तीव्र कहकर अपनी क्रियाओं की सापेक्षता में हम अनुभूत करते हैं।पर यह भी हर व्यक्ति जानता है कि यही अदृश्य परम शक्तिशाली अस्तित्व है जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का नियामक है।हम इससे विलग हो ही नहीं सकते।
काल सदा नवीन है, अक्षुण्ण है।यह जीवनकी रेखाओं को सत्य करती किसी एक भयानक स्वरूप को रूपायित नहीं करती।किसी संकट ,दुर्घटना, जन्म मरण आदि को समय की चेष्टाओं से जोड़कर हम उसे ही दोषी करार कर देते हैं।यह विस्मृत हो जाता है कि दुख सुख की घटनाओं से काल का क्या लेना देना।वह तो सबके लिए समान है जीवन में आनेवाली ये घटनाएँहमारे कर्मों से जुड़ी हैं। आगत , संचित अथवा किसी भी प्रकार के कर्म कार्य कारण सम्बन्ध से परिणाम बनकर जीवन में भुगतने होते ही हैं । मानव पशु पक्षी जल थल पर्वतादि सभी इन परिणामों से प्रभावित होते हैं, उनके भोक्ता बनते हैं।
ब्रह्म का वैदिक स्वरूप सत्य हो अथवा असत्य—यह विश्व सत्य हो अथवा माया कोई अन्तर नहीं।स्वामी वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैतवाद के अनुसार यह विश्व और उसका मानव जीवन असत्य नहीं होकर सत्य हो सकता हैपर सुख दुख का भोग वह कर्मों के अनुसार ही करता है।भग्वत्गीता में श्रीकृष्ण परमात्म स्वरूप हैं। महाकाल का मारक स्वरूप उनका अस्तित्व है । यह उनके उस समय- स्वरूप का दर्शन कराता हैजो चक्रीय है, एक रूप से घूमता है, सीधी लकीर की तरह नहीं चलता। वह सर्वोच्च द्रष्टा है, परम भोक्ता है, परम ईश्वर है।
आशा सहाय
