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बुर्खा और घूँघट प्रथा —-एक सामाजिक बुराई

कभी तो देखे अपनी माँ को, जो बुर्खा मुख पर ओढ़े थी ,

कभी बोलती बिना जुबां के, माँ कब तू मुख खोलेगी !

क्या मेरी जवानी और बुढ़ापा तेरी तरह ही गुजरेगा ,

जो तेरे था साथ हुआ, क्या वो सब मुझपर बीतेगा !

कैसे गर्मी धूप में भी तू, सर ढक कर के रहती है ,

चाहें मुख से कुछ ना बोले, दिल से तो कुछ कहती है !

मैं बेटी हूँ मुझे पता है, क्या क्या तू सह जाती है ,

इतनी गर्मी में भी जाने चुप कैसे रह जाती है !

ARUN SHARMA, VIKASPURI, Delhi

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