पंकज सीबी मिश्रा / राजनीतिक विश्लेषक एवं पत्रकार जौनपुर यूपी सम्पर्क सूत्र – 8808113709
रामचरितमानस में स्पष्ट कहा गया है कि ‘ माघ मकर रवि गति जब हुई तीर्थ पतिहि आव सब कोई ‘ अतः माघ मास में उत्तरायण की अवधि देवताओं का दिन तथा दक्षिणायन देवताओं की रात्रि है । सूर्य उत्तरायण का न सिर्फ आध्यात्मिक बल्कि वैज्ञानिक महत्व भी अत्यधिक है सूर्य की उत्तरायण गति व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक ऊर्जा को सकारात्मक रूप से प्रभावित करती है जिसके कारण शरीर में स्फूर्ति आती है ऋषि महर्षियों ने प्रकृति के नियमों एवं पर्वों के महत्व के पीछे छुपे वैज्ञानिक आधार के चलते मकर संक्रांति के दिन तिल और गुड़ का दान तथा सेवन करने की परंपरा बनाई इस मौसम में तिल और गुड़ जैसी उसका प्रदान करने वाली वस्तुओं का सेवन स्वास्थ्य के लिए उत्तम रहता है। तिल और गुड़ में कई पोषक तत्व होते हैं जो शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमताओं को बढ़ाते हैं शास्त्रों में कहा गया है कि तिल दान से ग्रहों की विशेष रूप से शांति होती है। देवताओं के दिन उत्तरायण में ही तमाम सारे शुभ कार्य होते हैं कहां जाता है कि मकर संक्रांति के दिन यज्ञ में दी गई मंत्र आहुतियां को प्राप्त करने के लिए देवता धरती पर अवतरित होते हैं इस बार तीर्थराज प्रयाग में महाकुंभ का प्रथम शाही स्नान मकर संक्रांति पर होगा हालांकि पौष पूर्णिया से महाकुंभ स्नान का शुभारंभ हो चुका है लेकिन मकर संक्रांति के दिन स्नान दान का विशेष महत्व रहा साधु संत शाही अखाड़े से लेकर आम जनमानस तक मकरे अर्क: के इस अतिविशिष्ट मुहूर्त में स्नान ध्यान और यौगिक क्रिया कर सांसारिक सुगमता को प्राप्त करेंगे इसी मार्ग से आपके जीवन में किए हुए पुण्य फलते हैं । इसीलिए आइये तीर्थराज प्रयाग में आध्यात्मिक वैज्ञानिक और मानसिक सुख का आनंद लीजिए। प्रयागराज में महाकुंभ 2025 का यह आयोजन सभी श्रद्धालुओं के लिए एक अविस्मरणीय अनुभव बनने जा रहा है, जहां करोड़ों लोग आस्था, एकता और श्रद्धा के इस अद्वितीय पर्व में भाग लेकर आत्मिक शांति का अनुभव करेंगे। हालांकि अंग्रेजो ने हिंदुओं के बारे में बहुत से माध्यमों से यह झूठ फैलाया कि यहां जातीय संघर्ष था और अस्पृश्यता छुआ-छूत है। परन्तु कुंभ इस बात का प्रमाण है कि हिंदुओं से अधिक सदाशयता समानता सहृदयता और आपसी सामंजस्य किसी भी सेमेटिक मजहब, रिलीजन यहां तक कि कम्युनिस्ट संगठनों में भी नहीं हो सकता है।देशभर में अखाड़ों की कुल संख्या 13 है। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि ये सभी अखाड़े उदासीन, शैव और वैष्णव पंथ के संन्यासियों के हैं। 7 अखाड़ों का संबंध शैव संन्यासी संप्रदाय से हैं और 3 अखाड़े बैरागी वैष्णव संप्रदाय के हैं। इसके अलावा उदासीन संप्रदाय के 3 अखाड़े हैं। दुनियां भर से सनातन जीवन पद्धति में आने वाले लगभग सारे मठ, समय नए पुराने आध्यात्मिक-धार्मिक-सामाजिक संगठन, ट्रस्ट, तमाम तरह के सेवा संगठन, सभी सरकारी गैर सरकारी व्यवस्थाएं, तमाम मंत्रालय, देश विदेश के लगभग सभी राज्यों के अपने टेंट, छावनियां वहां बनाई जाती हैं। यह विविधता देखने लायक होती है। कुंभ मेले का पहला लिखित प्रमाण भागवत पुराण में उल्लिखित है । कुंभ मेले का एक अन्य लिखित प्रमाण चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के कार्यों में उल्लिखित है, जो हर्षवर्धन के शासनकाल के दौरान 629-645 ईस्वी में भारत आया था। साथ ही, समुंद्र मंथन के बारे में भागवत पुराण, विष्णु पुराण, महाभारत और रामायण में भी उल्लेख किया गया है।
संपूर्ण 144 वर्ष बाद बन रहे इस दुर्लभ संयोग के हम साक्षी बनेंगे। इस बार का महाकुंभ इस पीढ़ी का आखिरी दुर्लभ महाकुंभ है । ऐसा कहा जाता है कि महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण जब इंद्र और देवता कमजोर पड़ गए, तब राक्षसों ने देवताओं पर आक्रमण करके उन्हें परास्त कर दिया था। ऐसे में सब पराजित देवता मिलकर विष्णु भगवान के पास गए और सारा व्रतांत सुनाया. तब भगवान ने देवताओं को दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र यानी क्षीर सागर में मंथन करके अमृत निकालने को कहा। ये दूधसागर ब्रह्मांड के आकाशीय क्षेत्र में स्थित है। सारे देवता भगवान विष्णु जी के कहने पर दैत्यों से संधि करके अमृत निकालने के प्रयास में लग गए। जैसे ही समुद्र मंथन से अमृत निकला देवताओं के इशारे पर इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर उड़ गया। इस पर गुरु शुक्राचार्य के कहने पर दैत्यों ने जयंत का पीछा किया और काफी परिश्रम करने के बाद दैत्यों ने जयंत को पकड़ लिया। अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और राक्षसों में 12 दिन तक भयानक युद्ध चलता रहा। कहा जाता है कि इस युद्ध के दौरान प्रथ्वी के चार स्थानों पर अमृत कलश की कुछ बूंदे गिरी थीं, जिनमें से पहली बूंद प्रयाग में, दूसरी हरिद्वार में, तीसरी बूंद उज्जैन और चौथी नासिक में गिरी थी। इसीलिए इन्हीं चार जगहों पर कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है। यहीं आपको बता दें की देवताओं के 12 दिन, पृथ्वी पर 12 साल के बराबर होते हैं, इसलिए हर 12 साल में महाकुम्भ का आयोजन किया जाता है। भारत में यह मेला बहुत अनूठा है, जिसमें पूरी दुनिया से लोग आते हैं और पवित्र नदी में स्नान करते हैं. इसका अपना ही धार्मिक महत्व है और यह संस्कृति का भी एक महत्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है। यह मेला लगभग 48 दिनों तक चलता है। मुख्य रूप से दुनिया भर से साधू, महात्मा, संत, योगी, संन्यासी, यति, तपस्वी, तंत्रिक, मान्त्रिक, याज्ञिक, तीर्थयात्री, कल्पवासी के साथ साथ समस्त श्रद्धालु भक्त इसमें भाग लेते हैं। जब अमृत को लेकर उड़ रहे थे, तब अमृत की कुछ बूंदें चार स्थानों – प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में गिर गईं। तभी से हर 12 वर्ष बाद इन स्थानों पर कुंभ मेले का आयोजन होता है। सारे नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका कुंभ में महत्वपूर्ण मानी जाती है। जब अमृत कलश को लेकर देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध चल रहा था तब कलश की खींचा तानी में चंद्रमा ने अमृत को बहने से बचाया, गुरु ने कलश को छुपाया था, सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इंद्र के कोप से रक्षा की। इसीलिए ही तो जब इन ग्रहों का योग संयोग किसी विशेष राशि में होता है तब कुंभ मेले का आयोजन होता है। महाकुंभ में समस्त सनातनी (हिंदू) पंथ संप्रदायों शैव, वैष्णव, पांचरात्र, वैखानस, साक्त, पाशिपत्य, लिंगायत कापालिक, मांगलिक, गानपत्य, समस्त मतों की लीडरशिप अपने मठ सहित अवश्य ही आती हैं। साथ ही सिख, बौद्ध और जैन पंथों के भी सभी मत कुंभ में आते हैं। सभी को वार्ता, विमर्श, शास्त्रार्थ, ट्रेनिंग, ज्ञान सीखने के अनन्त अवसर सहज ही वहां मिल जाते है। कुंभ एक साथ स्नान, ध्यान, अभिषेक, पूजन, अर्चन, प्रार्थना, साधना,जप, तप, हवन, योग, दान आदि तमाम अभ्यास करने से सामाजिक द्वेष भी कम करने का तरीका रहा है।महाकुंभ केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता का जीवंत संगम है, जो लोगों को अपनी आस्था को पुनः जागृत करने और ईश्वर के निकटता का अहसास दिलाने का अवसर प्रदान करता है ।