प्रेम में ऊब-डूब
मत देना गुलाब
जो मुरझा जाएँ
किताबों में रखे
सुषमा सौंदर्य मौलिकता
सब भूल जाएँ
देना इत्र में भीगे
गुलाबी पत्र जिसे नोटबुक में
पढ़ा जा सके नजरें बचाकर
जब जहाँ जैसे जी चाहे
रखा जा सके सहेजकर
उन तमाम प्रेमी युगल के लिए
जानते हैं जो प्रेम की
मौन मूक परिभाषा
देना सरसों बिछे
पीतवर्णी गलीचे
जिस पर दौड़ते रहें अनवरत
यह जानते हुए भी
कोई मंजिल हमारी
प्रतीक्षा नहीं कर रही
बैठे रहें अर्द्धरात्रि में
तालाबों नदियों के किनारे
नि:शब्द मौन
टरटराते मेंढ़क
फुदकती मछलियांँ
झंकृत करते झिंगुर
पौड़ते पनियैले सांँप के सिवा
कोई साक्षी न हो
उस अभिसार का
गुदगुदाती बारिश में
देना एक छतरी
जिसमें साथ उछलते कूदते
गढ्ढों का अनुमान किए बिना
भागते रहें इस यकीन पर
मेरे गिरने से पहले
सँभाल लोगे पूरी जिम्मेदारी से
लाना एक गुलाबी ओढ़नी
जिसमें चुन सकूँ हरसिंगार
बीन सकूँ कचनार पलाश महुआ
छुपा सकूँ शरमाते चेहरे को
उड़ा सकूँ उसे बेझिझक
फागुन की उन्मुक्तता में
देना थोड़ा खेत खलिहान
जहाँ भरी दोपहरी में
चल कर जाऊँ नंगे पाँव
गुड़ की भेलियाँ या मिसरी लेकर
तुम्हारे मनुहार के लिए
अठखेलियांँ करने
लाना धान गेहूँ की बालियांँ
जिसे टांग सकूँ मुंडेर पर
चिरई चुरुंग के लिए
देना सारा नीलापन
निस्सीम आकाश का
हरीतिमा धरती की
मत लाना कोई बंध
कोई जंजीर या सीमारेखा
प्रेम की संपूर्णता में
स्वीकार्य नहीं सात जन्म
सृष्टि के प्रारम्भ से
उत्थान पतन तक
इस प्रेम को आत्मसात करना
क्या सरल होगा तुम्हारे लिए?
दे सकोगे ऐसा प्रेम?
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डॉ शिप्रा मिश्रा
शिक्षण एवं स्वतंत्र लेखन, सम्पादक, कॉन्टेंट राइटर, प्रूफ रीडर, वॉइस ओवर आर्टिस्ट, मंच संचालक
बेतिया, प० चम्पारण, बिहार
वर्तमान निवास – कोलकाता
