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मातृभाषा सम्मानित हो, तो आत्मनिर्भर भारत हो

धरती से अंबर तक आजकल हर कोई वसंती रंग में रंगा हुआ है, साथ ही इन दिनों हमारे देश की लगभग चार पीढ़ियों पर गुलाबी रंग का मदिर अहसास भी छाया हुआ है।मान्यता है कि वैलेंटाइन दिवस के माध्यम से पूरे विश्व में निःस्वार्थ प्रेम का संदेश दिया जाता है।लेकिन प्रेम के व्यापक स्वरूप को एक दिवसीय परिधि में समेटना कहाँ तक उचित है? अपने जज़्बातों को शब्दों में बयान करने के लिए हर किसी को अपनी मातृभाषा की ज़रूरत होती है।लेकिन आजकल पश्चिमी उत्सव, पश्चिमी भाषा, पश्चिमी परिधान, पश्चिमी उपाधियाँ, हर किसी के बायो डाटा और जीवन का अभिन्न अंग बने हुए हैं। पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंगे हमारे देश के बचपन को अपनी मातृभाषा के महत्व से अवगत करवाना हर भारतीय का दायित्व है।इक्कीस फ़रवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस है, लेकिन हमारे देश की भावी पीढ़ी अंग्रेज़ी रैप पर थिरकती नज़र आ रही है।इतिहास गवाह है कि चाहे कोई गृह युद्ध हुआ हो चाहे वैश्विक, लेकिन हर शहीद की क़ुर्बानी का रंग लाल ही रहा, जिसे हिंदुस्तान की मातृभाषा में अभिव्यक्ति देने का श्रेय हिंदी को जाता है।

कोई सिख,कोई जाट,मराठा,कोई गुर्खा,कोई मद्रासी

सरहद पर मरने वाला, हर वीर था भारतवासी

जो खून गिरा पर्वत पर, वो खून था हिंदुस्तानी

जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो क़ुर्बानी

1962 में भारत चीन युद्ध के दौरान मारे गए सैनिकों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए 27 जनवरी 1963 को तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु की उपस्थिति में नई दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में, स्वर कोकिला लता जी, संगीतकार सी.रामचन्द्रा जी और गीतकार प्रदीप जी के सामूहिक प्रयास से भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय रचा गया।

जब घायल हुआ हिमालय,ख़तरे में पड़ी आज़ादी

जब तक थी साँस लड़े वो,फिर अपनी लाश बिछा दी

हम कैसे भूल सकते हैं उस क़ुर्बानी को जिसने हमारे देश को अपनी शहादत से आज़ादी का अर्थ समझाया।क्यूँ आज भी हम विदेशी भाषा के ग़ुलाम हैं।ये चिंतन का विषय है।

कैसी अजब विडंबना है !! हमारी भावी पीढ़ियों को वर्तमान में अंग्रेज़ी हुकूमतों की शिक्षण व्यवस्थाओं की ओर धकेला जा रहा है।हमारे देश का बचपन विदेश से उच्च शिक्षा प्राप्त करने का लक्ष्य निर्धारित कर के ही अपनी शिक्षा का आरंभ करता है।हिंदी भाषी लोगों को पिछड़े वर्गों में विभक्त करती अंग्रेज़ी पीढ़ी आज भारतीय संस्कृति की खिल्ली उड़ाती नज़र आती है।आत्मनिर्भर भारत की भावी पीढ़ी का आज अपनी मातृभाषा पर ही संपूर्ण अधिकार नहीं है। ये कटु सत्य है, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।अंग्रेज़ी भाषिणी “मैं” ने शाश्वत “तू” की वसंती गरिमा को ही निगल लिया है, इसलिए आज सर्वाधिक चिंतन का विषय यही है कि अपने चोले को वसंती रंग में रंग लिया जाए, जो हर रूह के वास्तविक रूपांतरण का एकमात्र साधन है।22 फ़रवरी को विश्व चिंतन दिवस है।अगर वैश्विक स्तर पर निःस्वार्थ प्रेम की महिमा का गुणगान करना हो तो, अंतर्मन के प्रकाश की ज्योति प्रज्ज्वलित कर के ही वैश्विक एकता का परचम लहराया जा सकता है।

तू किसी शब्दकोश में नहीं

जिसे शब्दों के लिबास की ज़रूरत हो

भला वो सावन रूह को कब भिगोता है

हर आँख़ की नमी में बहते सातों साग़र

माली वही जो दिलों में प्रेम पुष्प बोता है

बिन वीज़ा पासपोर्ट पुकार पे पहुँचे हरि

हर सुदामा के चरण आँसुओं से धोता है

मुस्कान बाँटते आडँबर प्रेम पुजारी बन बैठे

पर वात्सल्य तो हर युग की वेदना पे रोता है

काल का केंद्र अकाल पुरूष कैसे कहलाएगा

कैसे मिले रब,इमारती प्रतिमाओं में संजोता है

कैसे लिखूँ शब्दों की परिधि में नहीं समाएगा

इश्क़ इब़ादत बन पाए जब अपनी मैं खोता है

जय हिंद की भाषा जय हिंद का निःस्वार्थ प्रेम

मातृभाषी लेखन सागर से सीप चुनता गोता है

विद्यार्थियों की शैक्षिक उपलब्धि की गणना केवल काग़ज़ के चंद टुकड़ों से नहीं की जा सकती।भारतीय संस्कृति को पढ़ना और उस पर अमल करना दोनों अलग-अलग बातें हैं।जीवन मूल्यों को समझ पाने की क्षमता, उपलब्ध साधनों से नवीन सृजन की क्षमता और सीमित साधनों को असीमित सामर्थ्य में रूपांतरित कर पाने की कल्पनाशीलता का बोध केवल मातृभाषा के माध्यम से ही समझ पाना संभव होता है।शैशवकाल से वृद्धावस्था तक मानव के बौद्धिक विकास की प्रक्रिया मातृभाषा के रास्ते से होकर ही गुज़रती है।इसलिए हमारे देश की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि हमारे देश के बचपन की शिक्षा का माध्यम अपनी मातृभाषा हो ताकि आत्मनिर्भर भारत पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी मातृभाषा को समृद्धि देने में अपना समुचित योगदान दे सके।

कविता मल्होत्रा

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